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________________ annawww wwwwwwwwwwwwwwwww गा० २२] हिदिविहत्तीए वड ढीए अंतर __. १५१ ६ २७४. आदेसेण णेरइय० असंखे०भागवड्ढी अवहि. जह० एगसमओ। दो वडी० दो हाणी० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीससागरो० देमूणाणि । असंखे० भागहाणी० अोघं । पढमादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेत्र । णवरि सगसगुकस्सहिदी देसूणा । २७५. तिरिक्खेसु असंखेजभागवडी अवहि० जह० एगसमो, उक्क० पलिदो० असंखे भागो। दो वडि-दोहाणी० असंखे० भागहाणी० ओघं । पंचि० तिरिक्वतियम्मि असंखे०भागवडी० अवहि० ज० एगसमओ। दो वड्री. संखे० गुणहाणी ज० अंतोमुहु। उक्क० सव्वेसि पि पुव्वकोडिपुध। असंखेजभागहाणी० ओघं । संख०मागहाणी ज. अंतोमहुत्, उक्क० तिषिण पलिदोवमाणि अंतोमहुत्तब्भहियाणि । एवं मणुसतिय० । णवरि जम्हि पुत्रकोडिपुत्त तम्हि पुवकोडी देसूणा । असंख०गणहाणी० ओघं । पंचिंतिरिक्खअपज. असंखे० भागवड्डी० हाणी अवहि० जह० एगसमयो । दो वड्डी० दो हाणी० जह० अंतोमु०। उक्क० सव्वेसिमंतोमहुत्त । एवं मणुसअपज्ज-पंचिं० अपज्ज०-तसअपज्ज-विहंग । णवरि तसअपज्ज. दोवडी० जह• एगसमो। २७४. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंके असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय तथा दो वृद्धियों और दो हानियोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। तथा उपर्युक्त सभीका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है। तथा असंख्यात भागहानिका अन्तरकाल ओघके समान है। पहली पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये। ६ २७५. तिर्यञ्चोंमें असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा दो वृद्धियों, दो हानियों और असंख्यातभागहानिका अन्तरकाल ओघके समान है। पंचेन्द्रियतियश्चत्रिकमें असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय तथा दो वृद्धियों और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व है। असंख्यात भागहानिका अन्तरकाल ओघके समान है तथा संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त अधिक तीन पल्य है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकके जहाँ पूर्वकोटि पृथक्त्व कहा है वहाँ मनुष्यत्रिकके कुछ कम पूर्वकोटि कहना चाहिये। तथा असंख्यातगुणहानिका अन्तरकाल ओघके समान है । पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है तथा दो वृद्धियों और दो हानियोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। तथा उक्त सभीका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तक, पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, त्रस अपर्याप्तक और विभंगज्ञानियोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि त्रस अपर्याप्तकोंके दो वृद्धियोंका जघन्य अन्तर काल एक समय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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