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________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ $ २७६. देव० असंखेज्जभागवड्डी० अवहि० जह० एगसमश्री, दो बड्डी० संखेज्जगुणहाणी ० जह० अंतोमुहुत्तं, एक० अहारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । संखेज्जभागहाणी ० जह० अंतोमु०, उक्क० एकतीसं सागरो० देभ्रूणाणि । असंखे० भागहाणी० जह० एयसमओ, उक्क० अंतोमु० । भवणादि जाव सहस्सार त्ति एवं चैव । णवरि सगसगुकस्सहिदी देणा । आणदादि जाव उवरिमगेवज्जे त्ति असंखे ० भागहाणीए जहष्णुक० एगसम । संखे० भागहाणीए जह० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देणा । अणुद्दिसादि जाव सव्वहति असंखे० भागहाणी० जहण्णुक्क० एग समओ । संखे० भागहाणी० जहण्णुक्क० अंतोमु० । १५२ $ २७६. देवोंमें असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है तथा दो वृद्धियों और संख्यात गुणहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर है । तथा संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर है । तथा असंख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । भवनवासियों से लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंके इसी प्रकार जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये । आनत कल्पसे लेकर उपरिम ग्रैवेयक तकके देवों में असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है । तथा संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंके असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय तथा संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल मुहूर्त है। विशेषार्थ - नरक में स्वस्थानकी अपेक्षा संख्यातभाग वृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि संक्लेश क्षयसे एक समय तक होती है और पुनः इनका होना अन्तर्मुहूर्त कालके बिना सम्भव नहीं है, अतः इनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा । तथा नरक में असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है, अतः असंख्यात भागहानिको छोड़कर शेष सबका उत्कृष्ट अन्तर काल उक्त प्रमाण कहा । तिर्यंचों में असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल यद्यपि साधिक तीन पल्य है पर ऐसे जीवके तिर्यंच पर्यायके रहते हुए असंख्यात भागवृद्धिका उत्कृष्ट अन्तरकाल सम्भव नहीं किन्तु तिर्यंचों में एकेन्द्रियों के जो असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल पल्के असंख्यातवें भाग प्रमाण बतलाया है वही इनके असंख्यात भागवृद्धिका उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिये । तिर्यंचत्रिक में स्वस्थानकी अपेक्षा संख्यात भागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि एक समय तक होकर पुनः अन्तनहीं हो सकती हैं अतः इन दोनोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा । तथा तिर्यंच त्रिकके असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल यद्यपि साधिक तीन पल्य बतलाया है। किन्तु ऐसा जीव मरकर पुनः तिर्यंच पर्याय में नहीं आता, अतः तिर्यंच त्रिकके असंख्यात भागहानिका जो उत्कृष्ट काल है वह तीन वृद्धि, संख्यातगुणहानि और अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तरकाल नहीं हो सकता किन्तु इनके संज्ञी अवस्था में उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होकर असंज्ञयों में उत्पन्न हो जानेसे असंख्यात भागहानि प्रारंभ हो जाती है । पुनः असंज्ञयों में अपने अपने संज्ञियोग्य उत्कृष्ट काल तक, जो क्रमशः ४६, १५ व ७ कोटि पूर्व भ्रमण किया । तथा वहाँ अपनी अपनी असंज्ञी पर्यायके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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