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________________ ५७ गा• २२ ] हिदिविहत्तीए भंगविचओ काययोगि०-ओरालि-वेउव्विय-तिण्णिवेद०-चत्तारिकसाय-विहंग०-आभिणि-सुद०ओहि०-मणपज्जव०-संजद-सामाइय-छेदो०-परिहार०-संजदासंजद०-चक्खु०-अचक्खु०ओहिदंस-तिण्णिलेस्सा०-भवसिद्धि-सम्मादि-खइय०-वेदय-सण्णि-आहारित्ति। ९६. तिरिक्व० मोह० ज० अज० णियमा अस्थि । एवं सव्वएइंदियपुढवि०-बादरपुढवि०-बादरपुढविअपज्ज-मुहुमपुढवि०-पज्जत्तापज्जत्त-आउ०-बादरपाउ०-बादरआउअपज्ज-मुहुमाउ०-पज्जत्तापज्जत्त-तेउ०-बादरतेउ.-बादरतेउअपज्ज०मुहुमतेउ०—पज्जत्तापजत्त-वाउ०-बादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज-सुहमवाउ०-पज्जत्ता पज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेय०अपज्ज-वणप्फदि-णिगोद०-ओरालियमिस्स-कम्मइय-मदि-सुदअण्णाण-असंजद-तिण्णिले०-अभव०-मिच्छादि०-असण्णिअणाहारि त्त । ६७. मणुसअपज्ज• उक्कस्सभंगो। एवं वेउव्वियमिस्स०-आहार०-आहारमिस्स-( अवगद-) अकसाय-सुहुम०-जहक्खाद-उवसम०-सासण-सम्मामि० । एवं णाणाजीवेहि भंगविचओ समत्तो। पांचों वचनयोग,काययोगी, औदारिककाययोगो,वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले,विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी,अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी,संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थानासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले अवधिदर्शनवाले, पीत आदि तीन लेश्यावाले, भव्य. सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये । ६६. तिथंचोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति विभक्तिवाले और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। इसी प्रकार सभी एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त.जलकायिक,बादर जलकायिक,बादरजलकायिक अपर्याप्त,सूक्ष्म जलकायिक,सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त,सूक्ष्म अग्निकायिक,सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त,सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त,वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादरवायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्मवायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, निगोद, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये। ६७. लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंके उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके समान यहां भी आठ आठ भंग हैं। इसी प्रकार वैक्रियकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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