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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ६५. जहण्णयम्मि अपदं। तं जहा—जे जहण्णस्स विहत्तिया ते अजहण्णस्स अविहत्तिया, जे अजहण्णस्स विहत्तिया ते जहण्णस्स अविहत्तिया । एदेण अहपदेण दुविहो णि सो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह-जहण्णहिदीए सिया सव्वे जीवा अविहत्तिया, सिया अविहत्तिया च विहत्तिओ च, सिया अविहत्तिया च विहत्तिया च, एवं तिण्णि भंगा । एवमजह ० । णवरि विहत्तिया पुव्वं भाणियव्वं । एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसतिय-सव्वदेवसव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-बादरपुढवि०पज्ज-बादराउ० पज्जत्त०-बादरतेउ०पज्ज०-बादरवाउ०पज्ज-बादरवणप्फदि०पत्तेय०पज्ज-सव्वतस-पंचमण-पंचवचि० समान कहा। किन्तु लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य यह सान्तर मार्गणा है अतः इसकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थिति और अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंमेंसे प्रत्येकके आठ आठ भंग हो जाते हैं। इसी प्रकार और जितनी सान्तर मार्गणाएँ हैं उनमें तथा अपगतवेदी, अकषाथी और यथाख्यातसंयत इन तीन मार्गणाओंमें भी आठ आठ भंग प्राप्त होते हैं। ____ वह आठ भंग इस प्रकार हैं:-एक जीव उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाला (१), अनेक जीव उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले (२), एक जीव अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाला (३), अनेक जीव अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले (४),एक जीव उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला और एक जीव अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाला (५), एक जीव उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला और अनेक जीव अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले (६), अनेक जीव उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले और एक जीघ अनुत्कृष्ट स्थिति बिभक्तिवाला (७), अनेक जीव उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले और अनेक जीव अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले (८)। इस प्रकार उत्कृष्ट भंगविचय समाप्त हुआ। SE५. नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य भंगविचयके कथनमें जो अर्थपद है वह इस प्रकार है- जो जघन्य स्थिति विभक्तिवाले हैं वे अजघन्य स्थिति विभक्तिवाले नहीं हैं। जो अजघन्य स्थिति विभक्तिवाले हैं वे जघन्य स्थितिविभक्तिवाले नहीं हैं। इस अर्थपदके अनुसार निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे अोधकी अपेक्षा कदाचित् सभी जीव मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले नहीं हैं। कदाचिद् बहुतसे जीव मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाने नहीं हैं और एक जीव मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाला है । कदाचित् बहुतसे जीव मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले नहीं हैं और बहुतसे जीव मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले हैं इस प्रकार जघन्य स्थितिविभक्तिकी अपेक्षा तीन भंग होते हैं । इसी प्रकार मोहनीयकी अजघन्य स्थितिविभक्तिकी अपेक्षासे भी तीन भंग होते हैं। इतनी विशेषता है कि अजघन्य स्थितिविभक्तिकी अपेक्षा कथन करते समय 'विहत्तिया' का पहले कथन करना चाहिये । अर्थात् जिस प्रकार जघन्य स्थितिकी अपेक्षा कथन करते समय तीन भंगोंमें अविभक्तिवालोंका पहले कथन किया है उसी प्रकार अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा कथन करते समय तीन भंगोंमें पहले विभक्तिवालोंका कथन करना चाहिये । इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तियेच, सामान्य मनुष्य,पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी ये तीन प्रकारके मनुष्य,सभी देव, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादरजलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादरवायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त, सभी त्रस, पांचों मनोयोगी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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