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________________ wwwrwr गा ० २२] हिदिविहत्तीए भंगविचओ पज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-संजदासंजद०-असंजद०-चक्खु०--अचक्खु०अोहि०-छलेस्सा०-भव० -अभव-सम्मादि०-खइय०-वेदय० -मिच्छा०-सण्णि-असण्णि० आहारि०-अणाहारि त्ति। ६४. मणुसअपज्ज -उक्कस्सविहत्तिपुव्वा अहभंगा। अणुक्कस्सविहत्तिपुव्वा वि अहभंगा । एवं वेउव्वियमिस्स० -आहार-आहारमिस्स-अवगद०-अकसा०सुहुमसांप०-जहारवाद०-उवसम०-सासण-सम्मामि० । ___ एवमुक्कस्सभंगविचो समत्तो । मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहार विशुद्धिसंयत, संयतासंयत, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, छहों लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, सज्ञी, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये। ६४. लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति पूर्वक आठ भंग होते हैं और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिपूर्वक भी आठ भंग होते हैं। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। विशेषार्थ-निश्चित सिद्धान्तके अनुसार व्यवस्थाके द्योतक वाक्यको अर्थपद कहते हैं। यहाँ निश्चित सिद्धान्त यह है कि जो उत्कृष्ट स्थितिवाले होते हैं वे अनुत्कृष्ट स्थितिवाले नहीं होते और जो अनुत्कृष्ट स्थितिवाले होते हैं वे उत्कृष्ट स्थितिवाले नहीं होते। इससे यह व्यवस्था फलित हुई कि उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंसे अनुत्कृष्ट स्थितिअविभक्तिवाले जीव भिन्न नहीं और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंसे उत्कृष्ट स्थिति अविभक्तिवाले जीव भिन्न नहीं । फिर भी एकबार उत्कृष्ट स्थितिवालोंको और दूसरी बार अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंको मुख्य करके भंगोंका संग्रह किया जाय तो प्रत्येककी अपेक्षा तीन तीन भङ्ग प्राप्त होते हैं। जो मूल में गिनाये ही हैं। बात यह है कि उत्कृष्ट स्थितिवाला जीव कदाचित् एक भी नहीं रहता, तथा कदाचित् एक होता है और कदाचित् अनेक होते हैं। अब यदि इन तीन विकल्पोंको मुख्य करके भंग कहे जाते हैं तो उनकी सूरत निम्न होती है-(१) कदाचित् सब जीव उत्कृष्ट स्थितिअविभक्तिवाले होते हैं। (२) बहुत जीव उत्कृष्ट स्थितिअविभक्तिवाले होते हैं और एक जीव उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाला होता है। (३) कदाचित् बहुत जीव उत्कृष्ट स्थिति. अविभक्तिवाले होते हैं और बहुत जीव उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले होते हैं। यह तो उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा कथन हआ। अब यदि इसके स्थानमें अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंको मुख्य कर देते हैं और उत्कृष्ट स्थितिवालोंको गौण तो उन्हीं भंगोंकी शकल निम्न हो जाती है-(१) कदाचित् सब जीव अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले होते हैं । (२) कदाचित् बहुत जीव अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले होते हैं और एक जीव अनुत्कृष्ट स्थिति अविभक्तिवाला होता है । (३) कदाचित् बहुत जीव अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले और बहुत जीव अनुत्कृष्ट स्थितिअविभक्तिवाले होते हैं। सब नारकियोंसे लेकर अनाहारकों तक मूलमें जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं। उनमें यह ओघप्ररूपणा बन जाती है अर्थात् उन मार्गणाओंमें भी इसी प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंकी अपेक्षा तीन तीन भंग बन जाते हैं, अतः इनकी प्ररूपणाको ओघके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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