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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ६३. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण भण्णमाणे तत्थ णाणाजीवेहि उक्कस्सभंगविचए इदमहपदं-जे उक्कस्सस्स विहत्तिया ते अणुक्कस्सस्स अविहत्तिया । जे अणुक्कस्सस्स विहत्तिया ते उक्कस्सस्स अविहत्तिया । एदेण अहपदेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० उक्कस्सहिदीए सिया सव्वे जीवा अविहत्तिया, सिया अविहत्तिया च विहत्तिओ च, सिया अविहत्तिया च विहत्तिया च । एवं तिण्णि भंगा ३ । अणुक्क० हिदीए सिया सव्वे विहत्तिया, सिया विहत्तिया च अविहत्तिो च,सिया विहत्तिया च अविहत्तिया च । एवं सव्वणिरय-सव्वतिरिक्ख-मणुसतिय-देव-भवणादि जाव सव्वह-सव्वएइंदिय-सव्व विगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-छक्कायपंचमण-पंचवचि --कायजोगि०-ओरालिय--वेउविय०-ओरालियमिस्स०-कम्मइय-तिण्णिवेद-चत्तारिकसाय-मदि-सुदअण्णाण-विहंग-आभिणि-सुद०-ओहि०-मण
वाले एकेन्द्रिय जीवोंके मोहनीयकी जघन्य स्थिति होती है। एकेन्द्रियोंमें उक्त लेश्याओंका काल अन्तमुहूर्त है जो अजघन्य स्थितिके जघन्यकालसे छोटा है अतः जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है परन्तु उक्त लेश्याओंका काल जघन्य स्थितिके कालसे बड़ा है अतः अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त घटित हो जाता है जो सातवीं पृथिवीके समान है । शेष कथन सुगम है।
इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। ६६३. अब नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमका कथन करते हैं। उसमें भी नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट भंगविचयके कथनमें यह अर्थपद है-जो उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले हैं वे अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले नहीं हैं। जो अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले हैं वे उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले नहीं हैं। इस अर्थपदके अनुसार निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और देशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा कदाचित् सभी जीव मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिसे रहित हैं। कदाचित् बहुतसे जीव मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिसे रहित हैं और एक जीव मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला है । कदाचित् बहुतसे जीव मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिसे रहित हैं और बहुतसे जीव मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिकी अपेक्षा तीन भंग होते हैं। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिकी अपेक्षा कदाचित् सभी जीव मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले हैं। कदाचित् बहुतसे जोव मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले हैं और एक जीव मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिसे रहित है, कदाचित् बहुतसे जीव मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले हैं
और बहुतसे जीव मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिसे रहित हैं ये तीन भंग होते हैं । इसी प्रकार सभी नार की, सभी तियेंच, सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी ये तीन प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थ सिद्धि तकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, छहों कायवाले, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, वैक्रियिककाययोगी, औदारिकमिप्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रतज्ञानी, विभंगज्ञानी,आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी,
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