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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ ३१. खइय० उक्क. कस्स ? अण्णद० पढमसमयखइयसम्मादिहिस्स तस्स उक्कस्सिया हिदी । उवसम० मोह० उक्क० कस्स ? अण्णद० पढमसमयउवसामिददंसणमोहस्स उवसमसम्मादिहिस्स तस्स उक्कस्सिया हिदी। सासण. मोह० उक्क. कस्स ? अण्णद० पढमसमयसासणसम्मादिहिस्स । सम्मामि० मोह० उक्क० कस्स ? हिदिसंतकम्मघादमकाऊण पढयसमयसम्मामिच्छाइट्टी जादो तस्स । असण्णि. एइंदियभंगो। अणाहारि० कम्मइयभंगो। एवमुक्कस्ससामित्तं समत्तं । $ ३२. जहण्णए पयदं । दुविहो गिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० जह० हिदी कस्स ? अण्णद० खवगस्स चरिमसमयसकसायस्स जहण्णहिदी । एवं मणुसतिय-पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज-तस-तसपज०-पंचमण-पंचवचि-कायजोगि० मयमें ३१. क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति किसके होती है ? किसी भी क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवके पहले समयमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति किसके होती है ? जिसने दर्शनमोहनीय कर्मकी उपशामना की है ऐसे किसी भी उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके पहले समय में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति किसके होती है ? किसी भी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवके पहले समयमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति किसके होती है ? जो कोई एक जीव स्थितिसत्त्वका घात न करके सम्यग्मिथ्यादृष्टि हो गया है उसके पहले समयमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। असंज्ञी जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति एकेन्द्रियों के समान जानना चाहिये। तथा अनाहारक जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति कार्मणकाययोगी जीवोंके समान जानना चाहिये । विशेषार्थ यहां पर क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवके क्रमसे क्षायिकसम्यक्त्व, उपशमसम्यक्त्व और सासादन उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व कहा गया है । सो इसका कारण यह है कि एक तो इन मार्गणाओंमें पूर्व मार्गणासे आनेपर जितना अधिक स्थितिसत्त्व सम्भव है उतना स्थितिबन्ध नहीं होता। दूसरे प्रथम समयके बाद उत्तरोत्तर स्थितिसत्त्व हीन होता जाता है, अतएव इन मार्गणाओंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका स्वामी प्रथम समयवाले जीवको कहा है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें मिथ्यादृष्टि जीवका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके तथा उसका घात न करके आना सम्भव है और ऐसे सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवके सबसे अधिक स्थितिसत्त्व सम्भव है, इसलिए इसके भी उक्त प्रकारसे आनेपर उत्कृष्ट स्थिति कही है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ। $ ३२. अब जघन्य स्वामित्व प्रकृत है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-आंघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीयकी जघन्यस्थिति किसके होती है ? किसी भी क्षपक जीवके सकषाय अवस्थाके अन्तिम समयमें अर्थात् क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समयमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति होती है। इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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