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________________ .. . गा० २२ ] - डिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिविहतियपोसणं ३७७ ६६३२. गवुस० ओघं । णवरि अह चोद्द० गथि । मिच्छत्त-सोलसक.. उक्क० छ चोद्द० । इत्थि०-पुरिस० पंचिंदियभंगो। ६६३३. आभिणि-सुद०-ओहि० सव्वपयडी० उक्क० अणुक्क० लोग० असंखे०भागो अह चो० देसूणा । एवमोहिदंस०-सम्मादि-वेदय०-उवसम-सम्मामिच्छादिहि त्ति । विहंग० मणजोगिभंगो । संजदासंजद० उक्क० खेत्तभंगो, अणुक्क० होता है, इसलिये इसे तत्प्रमाण कहा। किन्तु पुरुषवेद और स्त्रीवेदकी उत्कष्ट स्थितिवालोंका कुछकम तेरह बटे चौदह राजु स्पर्श न प्राप्त होकर कुछकम बारह बटे चौदह राजु प्राप्त होता है। कारणका स्पष्टीकरण ओघमें कर आये हैं। अब विकल्परूपसे जो बारह बटे चौदह राजुका निषेध किया है। उसका मुख्य कारण यह है कि नीचे सात नरकके नारको स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके रहते हुए यद्यपि तियच और मनुष्योंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं फिर भी उनका प्रमाण स्वल्प होता है अतः कुछकम बारह बटे चौदह भाग प्रमाण स्पर्श नहीं बनता है। अनुत्कृष्टका खुलासा उत्कृष्टके समान ही है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति वेदकसम्यग्दृष्टियोंके पहले समयमें होती है और वेदकसम्यग्दृष्टियोंका स्पर्श कुछ कम आठ बटे चौदह राजु होता है अतः सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श भी उक्त प्रमाण ही बतलाया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंके स्पर्शका खुलासा मिथ्यात्व आदि की अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंके समान है। वैक्रियिकमिश्रकाययोग और आहारककाययोग आदि ऐसी मार्गणाएं हैं जिनके स्पर्शनमें क्षेत्रसे अन्तर नहीं पड़ता, अतः उनका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। ६६३२. नपुंसकवेदवाले जीवोंमें ओघके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भगप्रमाण स्पर्श नहीं है। मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभतिवाले जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । स्त्रीवेदवाले और पुरुषवेदवालं जीवोंमें पंचेन्द्रियतिर्यचोंके समान भंग है। विशेषार्थ-नपुंसकवेदमें जो ओघके समान स्पर्श बतलाया है वह अनुत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा बतलाया है । उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा तो विशेषता है । बात यह है कि ओघसे मिथ्यात्व आदिकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका विहार आदिकी अपेक्षा जो कुछ कम आठ बटे चौदह राजु स्पर्श बतलाया है वह नपुंसकवेदियोंके नहीं प्राप्त होता, क्योंकि वह देवोंकी मुख्यतासे बतलाया है और देवोंमें नपुंसकवेदी जीव होते नहीं। हां मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिवाले नपुंसकवेदियोंने नीचेके छह राजु क्षेत्रका स्पर्श किया है, अतः इनमें उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका यह स्पर्श बन जाता है । तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श पंचेन्द्रियोंके समान है। इसका यह अभिप्राय है कि पंचेन्द्रियोंमें जिस प्रकार स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार यहां भी घटित कर लेना चाहिये। ६६३३. श्राभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानियोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार अवधिदर्शनवाले, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। विभंगज्ञानियोंमें मनोयोगियोंके समान भंग है । संयतासंयतोंमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सनालीके चौदह भागोंमेंसे ४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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