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________________ ३७८ .. जयपवलासहिदे कसायपाहुडे [विदिविहत्ती ३ छ चोइस देसूणा । एवं सुक्क । ६६३४. तिणि ले० मिच्छत्त-सोलसक०-सत्तणोक० उक्क० छ चोद्द० चत्तारि चोद्द० बे चोद्द० देसूणा । अणुक्क० सव्वलोगो । इत्थि०-पुरिस० खेत्तभंगो। अथवा णवणोक० उक्क० तेरह-एक्कारस-णव चोद्दसभागा वा देसूणा, उववादविवक्खाए तदुवलंभादो। सम्मत्त सम्मामि० तिरिक्खोघं । तेउ० सोहम्मभंगो । पम्म० सणक्कुमारभंगो। खइय० एक्कवीस० उक्क० खेत्तभंगो। अणुक्क० अह चो० देसूणा । सासण. उक० अणुक्क० अह-बारह चोद्द० देसूणा । असण्णि० एइंदियभंगो । एवमुक्कस्सपोसणाणुगमो समत्तो । कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार शुक्ललेश्यावाले जीवोंके स्पर्श जानना चाहिये। विशेषार्थ--अन्यत्र श्राभिनिबोधिकज्ञानी आदि जीवोंका जो स्पर्श बतलाया है वही यहां उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका प्राप्त होता है। उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। मिथ्यात्वके रहते हुए जहां जहां मनोयोग सम्भव है वहां वहां विभंगज्ञान भी सम्भव है, अतः विभंगज्ञानियोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श मनोयोगियोंके समान बतलाया है । जो उत्कृष्ट स्थितिवाले वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संयमासंयमको प्राप्त होते हैं उन्हींके पहले समयमें उत्कृष्ट स्थिति होती है, अत: संयतासंयतोंके सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श.क्षेत्रके समान ही प्राप्त होता है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श कुछ कम छह बटे चौदह राजु है, क्योंकि मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा संयतसंयतोंने इतने क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार शुक्ललेश्यामें भी घटित कर लेना चाहिये । ६६.४. कृष्ण अादि तीन लेश्यावालोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले जीवोंने सनालीके चौदह भागोंमेंसे क्रमसे कुछ कम छह, कुछ कम चार और कुछ कम दो भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है । अथवा नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे क्रमसे कुछ कम तेरह, कुछ कम ग्यारह और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है, क्योंकि उपपादकी विवक्ष में इस प्रकारका स्पर्श पाया जाता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा स्पर्श सामान्य तिर्यंचोंके समान है। पीतलेश्यावालोंमें सौधर्म कल्पके समान भंग है। पद्मलेश्यावालोंमें सनत्कुमार कल्पके समान भंग है । क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में इक्कीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने बसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम बारह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। असंज्ञियोंमें एकेन्द्रियोंके समान भंग है। विशेषार्थ-कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायवालोंके जो क्रमसे कुछ कम छह बटे चौदह राजु, कुछ कम चार बटे चौदह राजु और . कुछ कम दो बटे चौदह राजु प्रमाण स्पर्श है वह नारकियोंकी मुख्यतासे बतलाया है । तथा ये तीनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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