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________________ गा० २२) . हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिष्टिदिविहत्तियंपोसणं ३७६ ६३५. जहएणए पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० जह० अजह० खेत्तभंगो। सम्मत्त जह० खेतभंगो । अज० अणक्कभंगो। सम्मामि० जह० अज० अणक्कभंगो । अर्णताणु०चउक्क० ज०. लो० असंखे०भागो अह चो० देसूणा । अज० सबलोगो । एवं काययोगि-चत्तारिक०-अचक्खु०-भवसि०-आहारि त्ति । लेश्यावाले जीव सब लोकमें पाये जाते हैं अतः इनमें उक्त प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श सब लोक बतलाया है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव लोकके असंख्यातवें भागमें पाये जाते हैं, क्षेत्र भी इतना ही है अतः इनका स्पर्श क्षेत्रके समान बतलाया है। तथा विकल्परूपसे कृष्णादि तीन लेश्याओंमें उपपाद पदकी अपेक्षा नौ नोकषायोंका स्पर्श जो कुछ कम तेरह बटे चौदह राजु कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजु और कुछ कम नौ बटे चौदह राजु बतलाया है वह क्रमसे नीचे छह, चार और दो राजु तथा ऊपर सात राजुकी अपेक्षा जानना चाहिये । कृष्णादि तीन लेश्यावालोंमें तियचोंकी बहुलता है, अतः इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका स्पर्श तिर्यचोंके समान बतलाया है । शेष मार्गणाओंका स्पर्श सुगम है। ___ इस प्रकार उत्कृष्ट स्पर्शनानुगम समाप्त हुआ। ६ ६३५. अब जघन्य स्पर्शनका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पश क्षेत्रके समान है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श अनुत्कृष्टके समान है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवाले जीवोंका स्पर्श अनुत्कृष्टके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम पाठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सब लोकका स्पर्श किया है। इसी प्रकार काययोगी, चारों कषायवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिये। विशेषार्थ-मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिवालोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अजघन्य स्थितिवालोंका क्षेत्र सब लोक है। स्पश भी इतना ही है, अतः इनके स्पर्शको क्षेत्रके समान बतलाया है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति यद्यपि चारों गतिके जीवोंके पाई जाती है फिर भी ऐसे जीव संख्यात ही होते हैं अतः इनका स्पर्श भी क्षेत्रके समान ही प्राप्त होता है । यही कारण है कि सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिवालोंका स्पश अनुत्कृष्टके समान है यह स्पष्ट ही है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका स्पर्श क्षेत्रक समान बतलाया है । अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श अनुत्कृष्टके समान सब लोक है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति विसंयोजनाके समय प्राप्त होती है। अब यदि ऐसे जीवोंके वर्तमान स्पशका विचार किया जाता है तो वह लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है। यही कारण है कि यहां जघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श उक्त प्रमाण कहा है । तथा ऐसे जीवोंका विहार आदि कुछ कम आठ बटे चौदह राजु प्रमाण क्षेत्र में पाया जाता है अतः अतीत कालीन स्पर्श उक्त प्रमाण कहा है। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अजघन्य स्थितिवाले जीव सब लोकमें हैं, इसलिये उनका सब लोक स्पर्श बतलाना स्पष्ट ही है। कुछ मार्गणाएं भी ऐसी हैं जिनमें यह ओघ प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है अतः उनके कथनको ओधके समान कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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