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________________ गा०२२] हिदिविहसीए उत्तरपयडिहिदिविहसिअंतर ४१५ * णिरयगईए सम्मामिच्छत्त-अणंताणुबंधीणं जहणहिदि [ विहत्ति ] अंतरं जहएणेण एगसमभो। ६६१. सुगममेदं । * उकस्सं चउवीसमहोरचे सादिरेगे। ६६६२. एदं पि सुगमं; ओघम्मि परूविदत्तादो । णवरि ओघम्मि उत्तरादो एदेणंतरेण सविसेसेण होदव्वं एगगइमस्सिदूण हिदस्स चउग्गइमल्लीणंतरेण सह समाणत्तविरोहादो। * सेसाणि जहा उदीरणा तहाणेदव्वाणि । ६९३. सेसाणि पयडिअंतराणि जहा उदीरणाए एदासिं पयडीणं परूविदाणि तहा परूवेदव्वं । संपहि जइवसहमुहविणिग्गयचुण्णिसुत्तस्स देसामासियस्स अत्थपरूवणं काऊण तेण सूचिदत्थस्स परूवणहं लिहिदुच्चारणं भणिस्सामो । ६९४. जहण्णंतराणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ क्रोध, मान और माया संज्वलनकी जघन्य स्थितिका जो उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष कहा है वह नहीं बन सकता है यह एक शंका है जिसका वीरसेन स्वामीने प्रारम्भमें उल्लेख करके उसका इस प्रकारसे समाधान किया है। वीरसेन स्वामीका कहना है कि इस प्रकार छह छह महीनाके अन्तरकाल लगातार नहीं प्राप्त होते हैं। कदाचित् यदि प्राप्त भी हुए तो दो ही अन्तरकाल प्राप्त हो सकते हैं। दो अन्तरकालोंके बाद तीसरे और चौथे अन्तरकालका प्राप्त होना तो किसी भी हालतमें सम्भव नहीं है। यदि ऐसा न माना जाय तो चूणिसूत्रकारने जो तीन संज्वलनोंका साधिक एक वर्षप्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल कहा है वह नहीं बन सकता है। ॐ नरकगतिमें सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय है। ६६६१. यह सूत्र सुगम है। * तथा उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौवीस दिनरात है। ६६६२. यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि इसका ओघ प्ररूपणाके समय कथन कर आये हैं। किन्तु इतना विशेष है कि जो अन्तर ओघमें कहा है उससे यह अन्तर कुछ अधिक होना चाहिये, क्योंकि एक गतिके आश्रयसे जो अन्तर स्थित है उसकी चार गतिसे संबन्ध रखनेवाले अन्तरके साथ समानता माननेमें विरोध आता है। ॐ शेष प्रकृतियोंका अन्तरकाल, जिस प्रकार उदीरणामें अन्तर कहा है उस प्रकार जानना चाहिये। ६६६३. पहले जो पाँच प्रकृतियाँ गिना आये हैं उन्हें छोड़कर शेष प्रकृतियोंका जिस प्रकार उदीरणामें अन्तरकाल कहा है उस प्रकार उनका अन्तरकाल जानना चाहिये । इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यके मुखसे निकले हुए देशामर्षक चूणिसूत्रके अर्थका कथन करके अब उससे सूचित होनेवाले अर्थका कथन करनेके लिये उसके ऊपर लिखी गई उच्चारणाको कहते हैं। ६ ६६४. जघन्य अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-प्रोघनिर्देश और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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