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________________ ४६६ sate असंभवादो | गयधवलासहिदे कसायपाहुडे * पुरिसवेदस्स द्विदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? ६ ७७१ सुगममेदं । * पियमा अणुक्कस्सा | १ ७७२. कुंदो ? इत्थवेदबंधकाले सेसवेदाणं बंधाभावादो । किमिद णत्थि बंध ! साहावियादो | ण च सहावो पडियबायणाजोग्गो, अव्ववत्थावत्तदो । ण च बंधे विणा पुरिसवेदो कसायद्विदिं पडिच्छदि, अपडिग्गहत्तादो । [ हिदिविही * उक्कस्सादो अणुक्कस्सा अंतोमुहुत्त समादिं काढूण जाव अंतोकोडाकोडिति । $ ७७३. तं जहा —कसायाणमुक्कस्सडिदिं पडिबंधिय पडिहग्गसमए बज्झमाण पुरिसवेदस्सुवरि बंधावलियादीदकसायद्विदीए संकंताए पुरिसवेदस्सु कस्सडिदिविहत्ती होदि । पुणो सव्वज हण्णेणं तो मुहूचे गुक्कस्ससंकिलेस गंतूण कसायुक्कस्सद्विदि अधिक कम क्यों नहीं की जाती है । समाधान- नहीं, क्योंकि आवलिसे अधिक कषायकी स्थिति के कम होने पर स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका पाया जाना संभव नहीं है । * स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति के समय पुरुषवेदकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? ९ ७७१. यह सूत्र सुगम है । * नियमसे अनुत्कृष्ट होती है । ९ ७७२ क्योंकि स्त्रीवेदके बन्धके समय शेष वेदोंका बन्ध नहीं होता है । शंका- स्त्रीवेदके बन्धके समय शेष वेदोंका बन्ध क्यों नहीं होता है ? समाधान - ऐसा स्वभाव ही है कि स्त्रीवेदके बन्धके समय शेष वेदोंका बन्ध नहीं होता है और स्वभाव में शंका नहीं की जा सकती, अन्यथा अव्यवस्थाकी आपत्ति प्राप्त होती है । और बन्धके बिना पुरुषवेद कषायकी स्थितिको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि उस समय वह अपतद्ग्रहरूप है । तात्पर्य यह है कि जब तक पुरुषवेदक । बन्ध न हो तब तक उसमें कषायकी स्थितिका संक्रमण नहीं होता | * वह अनुत्कृष्ट स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कसे कर अन्तः कोड़ाकोड़ी तक होती है । Jain Education International ६ ७७३. इसका खुलासा इस प्रकार है- कषायकी उत्कृष्ट स्थितिको बांध कर प्रतिभग्नकाल के पहले समय में बंधनेवाले पुरुषवेद में बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थिति के संक्रमण होने पर पुरुषवेदक उत्कृष्ट स्थितिबिभक्ति होती है । पुनः सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर और कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके प्रतिभम कालके प्रथम समय में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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