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________________ ४६५ गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियसरिणयासो ४६५ * सोलसकसायाणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कसा ? $ ७६८. सुगममेदं । * णियमा अणुकस्सा। $ ७६६. कुदो ? कसायाणमुक्कस्सहिदिबंधकाले इत्थिवेदस्स बंधाभावादो । बंधभावेण अपडिहग्गस्सित्थिवेदस्स सोलसकसायाणमुक्कस्सहिदिबंधकाले उक्कस्सहिदीए संभवाभागदो। * उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादिं कादूण जाव आवलियूणा त्ति । ७७० तं जहा-पडिहग्गपढमसमए बंधावलियादिक्कंतकसायद्विदीए इत्थिवेदम्मि संकंताए इत्थिवेदस्स उक्कस्सहिदिविहत्ती होदि । तक्काले कसायहिदी सगुक्कस्सं पेक्खिदूण समयूणा; चरिमसमयम्मि बंधुक्कस्सहिदीए गलिदेगसमयत्तादो । एवं विदियसमए दुसमयूणा तदियसमए तिसमयूणा एवमावलियमेत्तसमएसु कसायुक्कस्सहिदी प्रावलियूणा होदि । इथिवेदहिदी पुण उक्कस्सा चेव, चरिमसमयम्मि बद्धकसायुक्कस्सहिदीए बंधावलियादिक्कताए इत्थिवेदस्सुवरि संकंतिदसणादो । आवलियादो उवरि कसायुक्कस्सहिदी ऊणा किण्ण कीरइ ? ण, उवरि इत्थिवेदुक्कस्स ॐ स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके समय सोलह कषायोंकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? ६ ७६८. यह सूत्र सुगम है। * नियमसे अनुत्कृष्ट होती है। ७६६. क्योंकि कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिबन्धके समय स्त्रीवेदका बन्ध नहीं होता है । तथा बन्धरूपसे पतद्ग्रहपनेको नहीं प्राप्त हुए स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति सोलह व.पायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके समय संभव नहीं है। ___ * वह अनुत्कृष्ट स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा एक समय कम से लेकर एक आवलिकम उत्कृष्ट स्थिति तक होती है । ६७७०. इसका खुलासा इस प्रकार है-प्रतिभग्नकालके प्रथम समयमें बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिके स्त्रीवेदमें संक्रान्त होने पर स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। उस समय कषायकी स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए एक समय कम होती है, क्योंकि यहां पर अन्तिम समयमें बंधी हुई कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका एक समय गल गया है। इसी प्रकार दूसरे समयमें दो समय कम तीसरे समयमें तीन समय कम तथा इसी प्रकार आवलिप्रमाण समयोंके ब्यतीत होने पर कषायकी उत्कृष्ट स्थिति एक श्रावलिकम होती है परन्तु यहांतक स्त्रीवेदकी स्थिति उत्कृष्ट ही रहती है, क्योंकि अन्तिम समयमें बँधी हुई कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धावलिके ब्यतीत होने पर स्त्रीवेदमें संक्रमण देखा जाता है। शंका-कषायकी उत्कृष्ट स्थिति एक प्रावलि काल तक ही कम क्यों होती है इससे और ५६ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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