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________________ ४६४ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ भाव यह है कि नियमसे अनुत्कृष्ट होती है, क्योंकि मिथ्यात्व आदिकी उत्कृष्ट स्थिति मिथ्यात्व गुणस्थानमें प्राप्त होती है और उक्त दोनों कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति वेदकसम्यग्दृष्टिके पहले समयमें सम्भव है, अतः मिथ्यात्व आदिकी उत्कृष्ट स्थितिके समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति तो हो नहीं सकती। हाँ अनुत्कृष्ट स्थिति अवश्य सम्भव है सो भी वह अन्तर्मुहूर्त कम उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर एक स्थिति तक जानना चाहिये । किन्तु इसका एक अपवाद है। बात यह है कि सब प्रकृतियोंके प्रथमादि स्थितिकाण्डक सम और विषम दोनों प्रकारके होते हैं। इसलिये उन स्थितिकाण्डकोंमें प्राप्त स्थितिविकल्पोंके साथ नाना जीवोंकी अपेक्षा सन्निकर्ष बन जाता है। किन्त अन्तिम जघन्य स्थितिकाण्डक एक समान होता है। अतः सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व सम्बन्धी अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिमें जितने निषेक सम्भव हैं उतने स्थितिविकल्प सन्निकर्षमें नहीं प्राप्त होते, क्योंकि उनका पतन क्रमसे न होकर एक समयमें हो जाता है । इस पर एक स्थितिकाण्डकमें प्राप्त होनेवाली फालियाँ उत्कीरणकालकी सार्थकता और समुद्घातको प्राप्त हए केवलीके स्थितिकाण्डके साथ आनेवाला व्यभिचारका निराकरण इनका विचार किया गया है। पहली और दूसरी बातका विचार करते हुए बतलाया है कि एक स्थितिकाण्डकमें एक फालि न होकर अनेक फालियाँ होती हैं। प्रमाण रूपमें 'णवरि चरिमुव्वेल्लणकंडयचरिमफालीए ऊणा' गडी सत्र उपस्थित किया गया है। इस सूत्र में फालिके साथ चरम विशेषण आया है इससे प्रतीत होता है कि एक स्थितिकाण्डकमें अनेक फालियाँ होती हैं। अन्यथा फालिको चरम विशेषण देनेकी आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि एकमें चरम और अचरम यह व्यवहार नहीं बन सकता है । तो फिर वे कितनी होती हैं। इस शंकाके होने पर बतलाया है कि स्थितिकाण्डकका जितना उत्कीरण काल होता है उतनी फालियाँ होती हैं। इसका यह तात्पर्य है कि उत्कीरण कालके एकएक समयमै एक-एक फालिकः पतन होता है। यहाँ फालि शब्द फाँक इस अर्थमें आया है। जैसे लडकीके चीरने पर उसमें अनेक फलक या स्तर निकलते हैं उसी प्रकार स्थितिकाण्डकका पतन होते समय विवक्षित स्थितिकाण्डकके अनेक स्तर या फलक हो जाते हैं। उनमेंसे एक-एक फलकका एक-एक समयमें पतन होता है। इस प्रकार इन फालियों के पतनमें कितना समय लगता है उस सब कालको उत्कीरणकाल कहते हैं । उत्कीरणका अर्थ उकीरना है और इसमें जो काल लगता है उसे उत्कीरणकाल कहते हैं। भावार्थ यह है कि एक स्थितिकाण्डकके पतनका काल अन्तमुहूर्त बतलाया है। इसलिये उत्कीरण कालका प्रमाण भी इतना ही होता है। और एक स्थितिकाण्डकमें मालियाँ भी उक्तप्रमाण ही होती हैं । परन्तु प्रत्येक फालि स्थितिकाण्डकके आयामप्रमाण होती है । और तभी उसकी फालि यह संज्ञा सार्थक है। तीसरी बातका विचार करते हुए बतलाया है कि अकेवलियोंके साथ केवलियोंकी समानता करना ठीक नहीं। मतलब यह है कि संसारी जनोंको एक-एक स्थितिकाण्डकके पतनमें अन्तर्मुहूर्त काल लगता है और समुद्घातगत केवलीको एक-एक समय ही लगता है। अब जब कि सब स्थितिकाण्डकोंका काल अन्तर्मुहूर्त मान लिया जाय तो यह बात केवलियोंके स्थितिकाण्डकमें घटित नहीं होती, इसलिये व्यभिचार दोष आता है । बस इसी शंकाका समाधान करते हुए यह बतलाया है कि केवलियोंकी छद्मस्थ जनोंके साथ समानता नहीं है। अर्थात् एक-एक स्थितिकाण्डकका काल जो अन्तर्मुहूर्त बतलाया है वह छद्मस्थ जनोंकी अपेक्षा बतलाया है समुद्घातगत केवलियोंकी अपेक्षा नहीं, इसलिये कोई दोष नहीं प्राप्त होता। समुद्घातगत केवलियोंके तो परिणामोंकी विशुद्धिके कारण एक-एक समयमें एक-एक स्थिति काण्डकका पतन हो जाता है। इस प्रकार इतने कथनका यह तात्पर्य है कि सम्यक्त्व. और सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिके निषकोंका एक साथ पतन होता है इसलिये उतने निषेक सन्निकर्षको नहीं प्राप्त होते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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