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________________ १५७ गा• २२] द्विदिविहत्तीए वड ढीए अंतरं णवरि असंखे०गुणहाणी पत्थि । अवगद० असंखे भागहाणी जहण्णुक्क० एगसमो। दोहाणीणं जहण्णुक्क० अंतोम० । एवं सुहुमसांपराय। २८२. चत्तारिकसाय० तिणि वडढी० असंखेज्जभागहाणी० अवहि. जह० एगसमओ, उक्क० अंतोम० । संखे०भागहाणी-संखे०गुणहाणी-असंखेज्जगुणहाणीणं जहण्णुक्क० अंतोमु०। 3 २८३. मदि-सुदअण्णाणीसु असंखेज्जभागवड्ढी [अवहि०] जह० एगसमो, उक्क० एक्कत्तीस सागरो० सादिरेयाणि । सेसमोघ । एवमभव०-मिच्छादिहि त्ति । २८४. आभिणि ० - सुद० - ओहि० असंखे०भागहाणी जहण्णक्क० एगसमयो । संख०मागहाणी जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० छावहिसागरोवमाणि देसूणाणि । जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यात गुणहानि नहीं है। अपगतवेदियों में असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। तथा दो हानियोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार सूक्ष्मसांपरायिकसंयत जीवोंके जानना चाहिये। ६२८२. क्रोधादि चारों कषायवाले जीवोंमें तीन वृद्धियों, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। तथा संख्यात भागहानि, संख्यात गुणहानि और असंख्यात गुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-देवीकी उत्कृष्ट आयु पचवन पल्यकी है। अब यदि किसी देवीने उत्पन्न होनेके अन्तमुहूर्त बाद सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर लिया और जीवनमें अन्तमुहूर्त कालके शेष रहने पर वह मिथ्यादृष्टि हो गई तो उसके इतने काल तक असंख्यात भागहानि ही पाई जायगी अतः स्त्रीवेदमें असंख्यात भागवृद्धि, अवस्थित, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, संख्यात भागहानि और संख्यात गुणहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पचवन पल्प बन जाता है. क्योंकि ये र पद सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके पूर्व और बादमें सम्भव हैं। असंख्यात गुणहानि अनिवृत्ति क्षपकके ही होती है अतः असंयत जीवके इसका निषेध किया। अपगतवेदमें असंख्यात भागहानि जब संख्यातभागहानि या संख्यातगुणहानिसे एक समयके लिये अन्तरित होजाती है तब असंख्यात भागहानिका अन्तरकाल पाया जाता है जो कि जघन्य और उत्कृष्ट रूपसे एक समय प्रमाण ही होता है । तथा यहां संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानिका अन्तरकाल ओके समान घटित कर लेना चाहिये । किन्तु वहां जो जघन्य अन्तरकाल बतलाया है वही यहां जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिये । अपगतवेदसे सूक्ष्मसाम्परायिक संयतके कोई विशेषता नहीं अतः .उसके कथन को अपगतवेदके समान जानना चाहिये । चारों कषायोंका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है अतः इनमें सम्भव पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बन जाता है । शेष कथन सुगम है। ६२८३ मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक इकतीस सागर है। शेष कथन ओघके समान है। इसी प्रकार अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। ६२८४. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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