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________________ १५८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ एवं संखजगुणहाणीए । णवरि छावहिसागरो० सादिरेयाणि । असंखे० गुणहाणी. अोघं । एवमोहिदंस०-सम्मादिहीणं । मण पज्ज. असंखे भागहाणी. जहण्णुक० एगसमो। संखजभागहाणी० जह० अंतोम०, उक्क० पुवकोडी देसूणा । दोहाणी. जहण्णुक्क० अंतोमु० । एवं संजद०-सामाइय-छेदो०संजदे त्ति । २८५. परिहार० संजदासंजद० असंख०भागहाणी-संखे०भागहाणीणं मणपज्जयभंगो । चक्खु० तसपज्जत्तभंगो । णवरि संखे० भागवड्ढी० ज० अंतोम० । और उत्कृष्ट अन्तरकाल बुछ कम छियासठ सागर है। इसी प्रकार संख्या त गुणहानिका जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इसका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक छयासठ सागर है। तथा असंख्यात गुणहानिका अन्तरकाल अोधके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनवाले और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । मनःपर्ययज्ञानियोंमें असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि है। तथा दो हानियोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके जानना चाहिये। $ २५. परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके असंख्यात भागहानि और संख्यात भागहानिका अन्तरकाल मनःपर्ययज्ञानियोंके समान है । चक्षुदर्शनवाले जीवोंके त्रसपर्याप्तकोंके समान जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके संख्यात भागवृद्धिका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-किसी एक मिथ्यादृष्टि मनुष्यने असंख्यात भागवृद्धि या अवस्थित स्थितिको किया। अनन्तर वह असंख्यात भागहानिको प्राप्त होकर उत्कृष्ट आयुके साथ नौवें ग्रेवेयकमें उत्पन्न हो गया और वहां से च्युत होकर वह पुनः असंख्यात भागवृद्धि या अवस्थित स्थितिको प्राप्त हुआ । इस प्रकार मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंके उक्त दो पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक इकतीस सागर पाया जाता है । आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंके असंख्यात भागहानिके सम्भव रहते हुए जब अन्य पद एक समयके लिये प्राप्त हो जाते हैं तभी इनके असंख्यात भागहानिका अन्तरकाल प्राप्त होता है अतः इनके असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय प्रमाण कहा । संख्यात भागहानि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके समय आदिमें हुई और ६६ सागर के अन्तिम अन्तर्मुहूर्तमें दर्शन मोहकी क्षपणाके समय हुई अतः इसका अन्तरकाल अन्तमुहूर्त कम ६६ सागर होता है । संख्यात गुणहानि वेदक सम्यक्त्वके प्रथम समयमें हुई। फिर वेदक सम्यक्त्वमें ३ पूर्वकोटि ४२ सागर काल तक रह कर क्षयिक सम्यग्दृष्टि हो २४ सागर व १ पूर्वकोटिके अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में क्षपकश्रेणीके कालमें संख्यातगुणहानि हुई इस प्रकार इसका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त का चार पूर्वकोटियोंसे अधिक छयासठ सागरोपम होता है। मनःपयमज्ञानी, परिहारविशुद्धि व संयतासंयतका उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि है। अतः जिसने इस कालके प्रारंभमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना और अन्तमें दर्शनमोहकी क्षपणा की उसके संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्थात् , ८ वर्ष, ३८ वर्ष व ८ वर्ष कम पूर्व कोटि होता है। शेष कथन सुगम है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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