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________________ गा० २२.] द्विदिविहत्तीए वड्ढीए द्वारपरूवणा १८६ भागहाणिविह० जीवा असंखोगुणा । एवमोहिदसण-सुक्कले०-सम्मादिहि त्ति । मणपज्जव० एवं चेव । णवरि जम्मि असंखो०गुणं तम्मि संखो०गुणं कायव्यं । एवं संजद०-सामाइय-छेदो० । $ ३५३. चक्खु० सव्वत्थोवा असंखेजगुणहाणिविहत्तिया जीवा । संखे० गुणहाणिवि० जीवा असंखो०गुणा । संखेगुणवडिवि० जीवा विसेसाहिया । संखोज्जभागवडि-हाणिवि० जीवा दो वि तुल्ला संखेज्जगणा । असंख०भागवडि. जीवा असंखे गुणा । अवडि० जीवा असंखोज्जगणा । असंखो०भागहाणिवि० जीवा संखो० गुणा । विभंग०-तेउ०-पम्म विदियपुढविभंगो। $ ३५४. खइय० मणपज्जवभगो । णवरि असंखो०भागहाणि असंखो गणा त्ति वत्तव्यं । वेदय० सव्वत्थोवा संखो० गुणहाणि वि• जीवा । संखो०भागहाणिवि० जीवा संख० गुणा । असंखे० भागहाणिवि० जीवा असंखे गुणा । एवं सम्मामि । एवं वड्डी समत्ता । $ ३५५. संपहि हाणपरूवणे कीरमाणे सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ समयणदुसमयूणादिकमेण ओदारेयव्वाअो जाव णिवियप्पअंतोकोडाकोडि त्ति । तदो हानिवाले जीव संख्यातगणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । मनःपयेयज्ञानियों के इसी प्रकार जानना चाहिये। पर उनके इतनी विशेषता है कि आभिनिबोधिकज्ञानी आदिके जहाँ असंख्यातगुणा है वहाँ इनके संख्यातगुणा करना चाहिये। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके जानना चाहिये। ६३५३. चक्षुदर्शनवालोंमें असंख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानि इन दोनों पदवाले जीव परस्पर समान होते हुए भी संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। विभंगज्ञानी,पीतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंमें दूसरी पृथिवीके समान भंग है। ६३५५. क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें मनःपर्ययज्ञानियोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं ऐसा कहना चाहिये । वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें संख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। इस प्रकार वृद्धि अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। ३५५. स्थानको प्ररूपणा करते समय एक समय कम, दो समय कम इस क्रमसे सत्तर कोडाकाडी सागरप्रमाण स्थितिके निर्विकल्प अन्तःकोडाकोडी सागरप्रमाण प्राप्त होने तक कम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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