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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहती ३
$ १० पंचिदियतिरिक्ख अपज्ज० मोह० उक्क० सत्तरिसागरोव मकोडाकोडीओ अंतमुतणा । एवं मणुस पज्ज० - बादरेइंदियापज्जत - मुहमें इंदियपज्जत्तापज्जत्त - सव्वविगलिंदिय - पंचि ० पज्ज० - बादर पुढवि ० अपज्ज० - बादरआउ० अपज्ज० बादरवणप्फदि ० पत्तेयअपज्ज० - तेड - वाउ ० - बादर- मुहुम- पज्जत्तापज्जत्त - मुहुमवणफदि ०पज्जत्तापज्जत्त - सव्वणिगोद-तस पज्ज० - आभिणि० - सुद०- - ओहि ० - ओहिदंस०-- स्रुक्क - सम्मादिहि-वेदग०- सम्मामिच्छादिट्टि ति ।
$ ११ दादि जाव सव्वह त्ति मोह० उक्क० श्रद्धच्छेदो अंतोकोडाकोडीए । एवमाहार० - आहारमिस्स ० - अव गद० - अकसा० - मणपज्ज० - संजद ० - सामाइयच्छेदो०
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स्थिति नहीं बंधती अतः उसको यहाँपर नहीं ग्रहण किया है और इसी कारण आनतादि उपरम विमानों को भी छोड़ दिया है ।
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१०. पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों के मोहनीय कर्मकी स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्त बाद र जलकालिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त.
कायिक, वायुकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अमिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर वायुकायिक, बाद वायुकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकाकि पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सब निगोद, त्रस अपर्याप्त, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों के जानना चाहिए ।
विशेषार्थ -- जिस मनुष्य या तिर्यंचने सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिका बन्ध किया वह यदि मरकर पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में उत्पन्न होता है तो अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् ही उत्पन्न हो सकता है इसके पहले नहीं, अतः पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त मोहनीयकी स्थितिका उत्कृष्ट श्रद्धाच्छेद अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर ही प्राप्त होता है अधिक नहीं। इसके सिवा और जितनी मागणाएँ गिनाई हैं उनमें भी मोहनीयका उत्कृष्ट श्रद्धाच्छेद इसी प्रकार जानना चाहिए, क्योंकि मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव अन्तर्मुहूर्त के पहले उस उस मार्गणास्थानको नहीं प्राप्त होता है । सादि मिध्यादृष्टि सात प्रकृतिकी सत्तावाले जिसने मोहनीयका उत्कृष्ट बंध किया है वह स्थिति कांडक घात किये बिना वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त कर लेता है अतः उस सम्यग्दृष्टि या वेदक सम्यग्दृष्टि के मोहनीयका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर पाया जाता है। इसी प्रकार मिश्र गुणस्थानमें भी जानना चाहिए ।
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११. नत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक्के देवोंके मोहनीयकी स्थितिका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिक संयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहार
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