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________________ गा० २२ ] हिदिविहत्तीए श्रद्धाछेदो च। बहुसु अणिओगद्दारेसु संतेसु अद्धाछेदो चेव पढमं किमटै वुच्चदे ? ण, अद्धाछेदे अणवगए संते उवरिमअहियारपरूविज्जमाणत्थाणमवगमावणुवत्तीदो । ६. उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहणीयउक्कस्सहिदिविहत्ती केत्तिया ? सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ पडि वुण्णाओ । कुदो ? अकम्मसरूवेण हिदा कम्मइयवग्गणक्वंधा मिच्छत्तादिपच्चएण मिच्छत्तकम्मसरूवेण परिणदसमए चेव जीवेण सह बंधमागदा सत्तवाससहस्साबाधं मोत्तण सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीमु जहाकमेण णिसित्ता सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तकालं कम्मभावेणच्छिय पुणो तेसिमकम्मभावेण गमणुवलंभादो । एवं सव्वणिरय-तिरिक्खपंचिंदियतिरिक्वतिय-मणुस्सतिय-देव-भवणादि जाव सहस्सार-पंचिंदिय-पंचिंपज्जातस-तसपज्ज-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालिय-वेउनिय-तिण्णिवेद-चत्तारिकसाय-मदिसुदअण्णाण-विहंग -असंजद०-चक्खु०-अचक्खु०-पंचलेस्सा०-भवसिद्धिअब्भव-मिच्छाइहि०-सण्णि-आहारि त्ति । शंका-बहुतसे अनुयोगद्वारोंके रहते हुए सबसे पहले अद्धाच्छेदका ही कथन क्यों किया ? समाधान-नहीं, क्योंकि अद्धाच्छेदके अज्ञात रहनेपर आगेके अधिकारोंके द्वारा कहे जानेवाले अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता है। अतः सबसे पहले श्रद्धाच्छेदका कथन किया जा रहा है। ६. उत्कृष्ट अद्धाच्छेदका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-अोघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति कितनी है ? पूरी सत्तर कोटाकोडी सागर है; क्योंकि जो कार्मणवर्गणाओंके स्कन्ध अकर्मरूपसे स्थित हैं वे मिथ्यात्व आदिके निमित्तसे मिथ्यात्व कर्मरूपसे परिणत होनेके समयमें ही जीवके साथ बन्धको प्राप्त होकर सात हजार वर्षप्रमाण आबाधा कालसे कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोंके समयो में यथाक्रमसे निषेकभावको प्राप्त हो जाते हैं और सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर कालतक कर्मरूपसे रहकर पुनः वे अकर्म भावको प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार सभी नारकी, सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच, योनिमती तिथंच, सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, मनुष्यिणी, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षदर्शनी, कृष्ण आदि पाँच लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये। विशेषार्थ-बन्धकालमें मिथ्यात्वकी उकृष्ट स्थिति सत्तरकोडाकोडी सागर प्रमाण प्राप्त होती है, अतः ओघसे मिथ्यात्वकी स्थितिका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर कहा है। आगे और जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं वे सब संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त अवस्थाके रहते हुए सम्भव हैं और उनके मिथ्यात्व गुणस्थानके सद्भावमें मिथ्यात्वका यह उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव है इसीलिये इनके कथनको ओघके समान कहा है। शुक्ललेश्यामें संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त अवस्था और मिथ्यात्व गुणस्थान भी होता है परन्तु शुक्ललेश्यामें अन्तःकोटाकोटीसे अधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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