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________________ गा० २२.] द्विदिविहत्तीए श्रद्धाछेदो परिहार-मुहुम-जहाक्खाद-संजदासंजद-खइय०-उवसम०-सासणसम्मादिहि त्ति । ___१२ एइंदिएसु मोह० उक्क० अद्धच्छेदो० सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीअो समयूणाश्रो । एवं बादरेइंदिय-बादरेइंदियपज०-बादरपुढवि ०-बादरपुढविपज्ज०वादरआउ० ---बादराउपज्ज०--बादरवणप्फदिपत्तेय० --बादरवणप्फदिपत्रेयपज्ज०-- ओरालियमिस्स०-वेउवियभिस्स-कम्मइय-असण्णि-अणाहारि त्ति । एवमुक्कस्सो अद्धाच्छेदो समत्तो । विशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत, यथाख्यातसयत, संयतासंयत, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ--नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानोंमें तो सकलसंयमी सम्यग्दृष्टि ही पैदा होता है। किन्तु आनतादि चार कल्पोंमें और नौ ग्रैवयकमें मिथ्यादृष्टि जीव भी उत्पन्न हो सकता है । पर ऐसा जीव द्रव्यलिंगी मुनि संयतासंयत अवश्य होगा और ऐसे जीवके कर्मोंकी स्थिति अन्तः कोडीकोडी सागरसे अधिक नहीं पाई जाती है। तथा आनतादिकमें उत्पन्न होनेके पश्चात भी इसके स्थितिसत्त्वसे कम स्थितिवाले कर्मका ही बन्ध होता है, अतः आनतादिकमें मोहनी यकी उत्कृष्ट स्थितिका अद्धाच्छेद अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर कहा है। इनके सिवा और जितनी मार्गणाएँ 'गिनाई हैं उनमें भी इसी प्रकार मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका अद्धाच्छेद अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर घटित कर लेना चाहिए। यद्यपि इनमें कई ऐसी मार्गणाएँ हैं जिनमें अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिबन्ध नहीं होता पर प्राक्तन सत्त्वकी अपेक्षा वहां भी यह अद्धाच्छेद उपलब्ध हो जाता है। ६१२. एकेन्द्रियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका अद्धाच्छेद एक समय कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है । इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर पृथ्वी कायिक, बादर पृथिवी कायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिका यिक प्रत्येकशरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, औदारिक मिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कामणकाययोगी. असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। विशेषार्थ-जो देव मोहनीयकी सत्तर कोड़ाकोड़ी प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके और दूसरे समयमें मरकर एकेन्द्रियादिकमें उत्पन्न होते हैं उन एकेन्द्रियादिकके मोहनीयकी स्थितिका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद एक समय कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर पाया जाता है । इसी प्रकार इस अपेक्षासे असंज्ञियोंके मोहनीयकी स्थितिका एक समय कम सत्तर कोड़ाकोड़ी प्रमाण अद्धाच्छेद कहना चाहिये । किन्तु औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें उत्कृष्ट अद्धाच्छेदका कथन करते समय देव और नरक पर्यायसे तिर्यंचोंमें उत्पन्न कराकर कहना चाहिये । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें उत्कृष्ट अद्धाच्छेदका कथन करते समय मनुष्य और तियेच पर्यायसे नारकियोंमें उत्पन्न कराकर कहना चाहिये । कार्मणकाययोगी और अनाहारकोंमें उत्कृष्ट अद्धाच्छेदका कथन करते समय चारों गतिके जीवोंकी अपेक्षा कहना चाहिये, क्योंकि जब विवक्षित गतिके जीव भवके अन्त में मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके और मरकर औदारिकमिश्रकाययोगी आदि होते हैं तव उनके मोहनीयकी स्थितिका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद एक समय कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर देखा जाता है। इस प्रकार उत्कृष्ट अद्धाच्छेद समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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