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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिवत्ती ३ $ १३ जहण्णाद्धादागमेण दुविहो णिद्देसो श्रघेण आदेसेण य । तत्थ घेण मोह • जहणिया अद्धा केतिया ? एगा हिंदी एगसमइया । एवं मणुसतियपंचिंदिय० - पंचि ० पज्ज० - तस-तसपज्ज० - पंचमण० -- पंचवचि ० -- कायजोगि--ओरालि०अवगद० - लोभक०-आभिणि० - सुद० - ओहि ० -मणपज्ज० - सुहुमसांपरा ० - संजद - चक्खु ०अचक्खु०-ओहिदंस०-सुक्क० भवसिद्धि० - सम्मादि ० खइय० - सण्णि ० - आहारि त्ति । १३ $ १४ आदेसेण णेरइएसु मोह० सागरोवमसहस्सस्स सत्तसत्तभागा पलिदो - मस्स संखेज्जदिभागेण ऊणया । एवं पढमाए पुढवीए पंचिंदियतिरिक्ख० - पंचिं०तिरि० पज्ज० - पंचिं० तिरि० जोणिणी-पंचिं० तिरि० अपज्ज - मणुस पज्ज० [देव - ] भवण०वाण० - पंचिंदियपज्ज० वत्तव्वं । १५. विदियादि जाव सत्तमित्ति मोह० अंतोकोडाकोडीए । एवं १३. जघन्य अद्धाच्छेदानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ निर्देश और आदेशनिर्देश | उनमेंसे श्रधनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीयका जघन्यकाल कितना है ? एक समयवाली एक स्थितिप्रमाण जघन्यकाल है । इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, मनुष्यनी, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, स, स पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, अपगतवेदी, लोभकषायी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी सूक्ष्मसोपरायिक संयत, संयत, चतुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यदृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवों के जानना चाहिये । विशेषार्थ - जो जीव क्षपकश्रेणीपर आरोहणकर सूक्ष्मसांपराय के अन्तिम समय में स्थित रहता है उसके मोहनीयका एक समयवाला एक स्थितिप्रमारण श्रद्धाच्छेद उपलब्ध होता है यहां अन्य जितनी मार्गणाऐं गिनाई हैं उनमें क्षपकश्रेणीकी प्राप्ति सम्भव है इसलिये इनमें मोहनीयका श्रद्धाच्छेद उक्त प्रमाण कहा है। १४. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नारकियों में मोहनीयकी जघन्य स्थिति हजार सागरके सात भागों में से पल्योपमके संख्तातवें भाग कम सात भागप्रमारण होती है । इसी प्रकार पहली पृथ्वी के जीवोंके तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती, पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्त, मनुष्य लब्ध्यपर्यात, देव, भवनवासी व्यन्तर और पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त जीवों के जानना चाहिये । विशेषार्थ – असंज्ञी पंचेन्द्रिय के मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पल्यके संख्यातवें भाग कम हजार सागर प्रमाण होता है और यह जीव सामान्यसे नारकियोंमें, प्रथम पृथ्वीके नारकियोंमें, देवोंमें, भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें तथा मनुष्य अपर्याप्तकों में मरकर उत्पन्न हो सकता है इसलिए तो इन मार्गणाओं में मोहनीयका जघन्य श्रद्धाच्छेद उक्त प्रमाण कहा है। मात्र ऐसे असंज्ञी जीवको इनमें उत्पन्न कराने के पहले प्राक्तन सत्व इससे अधिक नहीं रखना चाहिए | तथा पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च आदि चार अवस्थावाला असंज्ञी पंचेन्द्रिय भी होता है इसलिए इनमें भी मोहनीयका जघन्य श्रद्धाच्छेद उक्त प्रमाण कहा है। S९५. दूसरी पृथ्वी से लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंके मोहनीयकी जघन्य स्थिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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