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________________ १३४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिषिहची ३ २४०. आणदादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति जह० हाणी कस्स ? अण्ण. अधहिदिक्खएण। एवमाहार०-आहारमिस्स-अवगद०-अकसा०-आभिणि-सुद० ओहि-मणपज्ज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-सुहम०-जहाक्रवाद०-संजदासंजद०-ओहिदंस०-सुक्क०-सम्माइहि-खइय०-वेदय०-उवसम०-सासण-सम्मामिच्छादिहि त्ति । एवं सामित्ताणुगमो समत्तो । ___$ १४१. अप्पाबहुअं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि सो-अोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वत्थोवा उक्कस्सिया हाणी । वडी अवहाणं च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । एवं सत्तसु पुढवीसु तिरिक्खपंचितिरिक्वतिय-मणुसतिय-देव०-भवणादि जाव सहस्सार०-पंचि०-पंचि०पज्ज०तस-तसपज्ज-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-पोरालिय०-वेउब्बिय०-तिण्णिवेदचत्तारिक०-तिण्णिअण्णाण-असंजद०-चक्खु०-अचक्खु०-पंचले०-भवसि०-अभवसि०मिच्छादि०-सण्णि०-आहारि त्ति । २४२. पंचि०तिरिक्खअपज्ज० सव्वत्थोवा उक्क० वड्ढी अवहाणं च । हाणी संखेज्जगुणा। एवं मणुसअपज्ज०-सव्वविगलिंदिय-पंचिदियअपज-तसअपज्ज०-ओरालि ६२४०, आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें जघन्य हानि किसके होती है ? अधःस्थितिके क्षयसे किसी एकके होती है। इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । इस प्रकार स्वामित्वानुगम समाप्त हुआ। ६२४१. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है--जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। इनमेंसे ओघकी अपेक्षा उत्कृष्ट हानिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। वृद्धि और अवस्थान इन दोनोंवाले जीव समान होते हुए भी उत्कृष्ट हानिवाले जीवोंसे विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सामान्य तिर्यञ्च, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, मनुष्यत्रिक, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, तीनों अज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि पाँच लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये । ६२४२. पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे उत्कृष्ट हानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तक, सभी विकलेन्द्रिय, کو ع ع . برای مرد فر فرع فرد ہے میں عر عر معي بمرم فرور ی Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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