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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहती ३ ५४. विगलिंदिय० मोह० उक्क० केव० ? जहराणुक्क० एयसमओ । अणुक्क० जह० खुद्दाभवग्गहणं समऊणं, उक्क० संखेज्जाणि वाससहस्साणि । एवं विगलिंदियपज्जत्ताणं पि । णवरि अणुक्कस्सजहरणकालो अंतोमुहुत्तं समऊणं । ३० ५५. पंचिदिय - पंचिं ० पज्ज० - तस तसपज्ज० मोह० उक्क० श्रोघभगो । अणुक्क० जह० एगसमश्र, उक्क० सगसगुक्कस्स हिदी | ५६. पुढवि०- बादरपुढ वि०[०- आउ०- बादरआउ० उक्क० के० १ जह० एगसमओ, उक्क० एगसमय । अणुक्क० जह० खुद्दाभवग्गहणं, उक्क० सगसगुक्कहिदी । बादरपुढ विपज्ज० - बादरआउ०पज्ज० उक्क० के० ? जह० एगसमओ, ५४. विकलेन्द्रिय जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्ट दोनों एक समय है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जवन्य सत्त्वकाल एक समय कम खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्ष है । इसी प्रकार विकलेन्द्रिय पर्याप्तकों के भी जानना चाहिये । पर इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय मुहूर्त है। विशेषार्थ - सूक्ष्म एकेन्द्रियसे लेकर आगे जितनी मार्गणाओं में काल कहा है उन सबके मोहन उत्कृष्ट स्थिति भवके पहले समय में ही प्राप्त हो सकती है, अतः सबके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । पर अनुत्कृष्ट स्थितिके जघन्य कालका कथन करते समय जहां खुदाभत्रग्रहण प्रमाण जघन्य स्थिति सम्भव है वहां एक समय कम खुद्दा भवग्रहण प्रमाण जघन्य काल कहा और जहां अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जघन्य स्थिति सम्भव है वहां एक समय कम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जघन्य काल कहा । तथा जहां जो उत्कृष्ट काल सम्भव है वहां अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल तत्प्रमाण कहा । $ ५५. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त त्रस और सपर्याप्त जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल के समान है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । विशेषार्थ-पंचेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट स्थिति पूर्वं कोटि पृथक्त्वसे अधिक एक हजार सागर, पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों की उत्कृष्ट स्थिति सौ सागरपृथक्त्व, त्रसकाथिकोंकी उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व से अधिक दो हजार सागर और त्रसकायिक, पर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट स्थिति दो हजार सागर लाई है अतः इनके अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल उक्त स्थिति प्रमाण जानना चाहिये । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय जिस प्रकार नारकियोंके घटित करके लिख आये हैं उसी प्रकार यहां भी घटित कर लेना चाहिये । शेष कथन सुगम है । ९ ५६. पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, जलकायिक और बादर जलकायिक जीवों के मोहनीकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है । तथा अनुकृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल खुदाभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त और बादर जलकायिक पर्याप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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