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________________ गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियभागाभागो ३५५ अपज्ज०-देव०-भवणादि जाव अवराइद०-सव्वविगलिंदिय० सव्वपंचिंदिय-चत्तारिकायबादरवणप्फदिपोयसरीर-सव्वतस-पंचमण०-पंचवचि०-वेउवि०-उ०मिस्स०-इत्थि०पुरिस०-विहंग०-आभिणि-सुद०-ओहि-संजदासंजद०-चक्खु०-ओहि०-तेउ०-पम्म०सुक्क०-सम्मादि-खइय०-वेदय०-उवसम०-सासण-सम्मामि०-सण्णि त्ति । मणुसपज्ज०मणुसिणीसु सव्वपयडीणमुक्क. सव्वजी० के० १ संखेज्जदिभागो। अणुक्क० सव्वजी० के० १ संखेज्जा भागा। एवं सव्वह०-आहार-आहारमिस्स०-अवगद०-अकसा०मणपज्ज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-मुहुम०-जहाक्खाद० । ___ एवमुक्कस्सओ भागाभागाणुगमो समत्तो । भवनवासियोंसे लेकर अपराजित तकके देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, चारों स्थावरकाय, सभी बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर, सब त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिक काययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी, संयतासंयत, चक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये। मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देव, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदवाले, अकषायी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदापस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये। विशेषार्थ-ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीव अनन्त हैं तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले जीव असंख्यात हैं। यह तो प्रकृतियोंके सत्त्वकी अपेक्षा संख्या हई । किन्तु उत्कृष्ट स्थिति और अनुत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा विचार करने पर छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव असंख्यात प्राप्त होते हैं और अनुत्कृष्ट स्थितिवाले अनन्त, इसलिये भागाभागकी अपेक्षा यह बतलाया है कि छब्बीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंसे उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव अनन्तवें भाग प्रमाण है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीव प्रत्येक असंख्यात हैं फिर भी अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंसे उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, इसलिये भागाभागकी अपेक्षा यह बतलाया है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले जितने जीव हैं उनमें से असंख्यातवें भागप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिवाले हैं और असंख्यात बहुभाग प्रमाण अनुत्कृष्ट स्थितिवाले हैं। मार्गणाओंकी अपेक्षा सब जीव तीन भागोंमें बट जाते हैं कुछ मागणावाले जीव अनन्त हैं, कुछ मार्गणावाले जीव असंख्यात और कुछ मार्गणावाले जीव संख्यात । इनमेंसे अनन्त संख्यावाली जितनी भी मार्गणाएं हैं उनमें यह ओघ प्ररूपणा बन जाती है, इसलिये उनकी प्ररूपणाको ओघके समान कहा । वे मार्गणाएं मूलमें गिनाई ही हैं। किन्तु अभव्योंके सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका सत्त्व नहीं पाया जाता, अतः इनमें उक्त प्रकृतियोंकी अपेक्षा भागाभाग नहीं कहना चाहिये । अब रहीं असंख्यात संख्यावाली और संख्यात संख्यावाली मार्गणाएं सो असंख्यात संख्यावाली मार्गणाओंमें सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीव असंख्यात बहुभाग प्रमाण और उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव असंख्यातवें भाग प्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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