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________________ ३५४ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे. [विदिविहत्ती ३ ___५६६, भागाभागाणुगमो दुविहो-जहण्णओ उक्कस्सो च । उकस्से पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ अोघेण अट्ठावीसहं पयडीणमुक्कस्सहिदिविहत्तिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो अणंतिमभागो। अणुक्क० सव्वजी० के० ? अणंता भागा । णवरि सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० सव्वजी० असंखेज्जदिभागो । अणुक्क० सव्वजीवाणं असंखेज्जा भागा। एवं तिरिक्ख-सव्वएइंदिय-वणप्फदि-णिगोद-कायजोगि०ओरालिया-ओरालिय०मिस्स०-कम्मइय०-णवुस०-चत्तारिक०-मदि-सुदअण्णा०-असंजद०-अचक्खु०-किण्ह०-णील०-काउ०-भवसिद्धि०-मिच्छादिहि-असण्णि-आहारिअणाहारि ति । अभव० एवं चेव । णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि पत्थि । ___$६००. आदेसेण णेरइएसु सव्वपयडीणमुक्क० सबजी० के० ? असंखेज्जदिभागो। अणुक्क० असंखेज्जा भागा। एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस-मणुसप्रकृतियोंकी अपेक्षा ओघ के समान छहों भंग बन जाते हैं । मनुष्य अपर्याप्तकोंसे लेकर सम्यग्मिथ्यादृष्टि तक जितनी भी मार्गणाएं मूलमें गिनाई हैं उनमें जिस प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा आठ आठ भंग बतला आये हैं उसी प्रकार जघन्य और अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा आठ आठ भंग जानने चाहिये । एकेन्द्रियों में आदेशकी अपेक्षा जो उनकी जघन्य और अजघन्य स्थिति बतलाई है उसकी अपेक्षा मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके सामान्य तियचोंके समान दो भंग प्राप्त होते हैं। वे दो भंग पहले बतलाये ही हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा तो यहां भी अोधके समान छह भंग ही प्राप्त होते हैं। बादर एकेन्द्रियोंसे लेकर असंज्ञी तक मूलमें जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमेंसे सामान्य पृथिवी आदि पांच मार्गणाओंको छोड़कर शेषमें इसी प्रकार जानना चाहिये । इसी प्रकार आगे भी जिन मार्गणाओंमें जिन प्रकृतियोंकी स्थिति सम्बन्धी जो विशेषता बतलाई है उसको ध्यानमें रखकर भंगविचयकी प्ररूपणा करनी चाहिये। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य विचयानुगम समाप्त हुआ। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय समाप्त हुआ। ६५६६. भागाभागानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । पहले यहां उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके असंख्यातवेंभाग हैं। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके असंख्यात बहुभाग हैं। इसी प्रकार तियेच, सब एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक, निगोद, काययोगी, औदारिककाययगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुसकवेदी, चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षदर्शनवाले, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। अभव्योंके भी इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो प्रकृतियां नहीं हैं। ६६००. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात बहुभाग हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सब पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य, मनुष्यअप्रर्याप्त, सामान्य देव, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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