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________________ गा० २२ ] द्विदिविहती भेदणिद्देसो ण, कम्मपयडिद्विदिपरूवणाए पंक्कताए णोकम्मडिदिपरूवणाए असंभवादो | $ २. का मूलपयडिीि णाम ? अट्ठावीसपयडीणं पयडिसमाणत्तणेण एयत्तमुवगयाणं द्विदिविसेसा मूलपयडिहिदी । कथं पुधभूद्विदीणमेयतं ? सरिसत्तणेण पयडीए । ण च पयडिसरिसत्तमसिद्धं, उप्पण्णमोहपयडीए पढमसमय पहुड अविणासादो मोहपयडीसरूवेणेव अवहाणुवलंभादो । मोहपयडिद्विदीए सामण्णाए आदिविवज्जिया कथं परूवणा कीरदे ? ण, पवाहसरूवेण अणादिमोहपयडिडिदि मोत्तूण एगसमयम्म दुकमोहा से सपयडीणं मोहपयडित्तणेण एयत्तमुवगयाणं हिदीए परूवणा कीरदित्ति दोसाभावादो । एवं संते मूलपयडिडिदि ति कथं जुज्जदे ? ण, सव्वेसिं समयपवद्धाणं पयडिसमूहस्स मूलपयडित्तन्भुवगमाभावादो का पुण कथन क्यों नहीं किया ? समाधान- नहीं, क्योंकि कर्मप्रकृतियोंकी स्थितिकी प्ररूपणा करते समय नोकर्मकी स्थितिकी प्ररूपणा करना असंभव है, अतः यहाँ नोकर्मप्रकृतियोंकी स्थितियोंका ग्रहण नहीं किया है । १२. शंका - मूलप्रकृतिस्थिति किसे कहते हैं ? समाधान - प्रकृति सामान्यकी अपेक्षा एकत्वको प्राप्त हुईं अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जो स्थिति - विशेष है उसे मूलप्रकृतिस्थिति कहते हैं । शंका- जब कि सब प्रकृतियों की स्थितियाँ अलग अलग हैं, तब उनमें एकत्व कैसे हो सकता है ? समाधान - प्रकृतिसामान्यकी अपेक्षा सभी प्रकृतियाँ एक हैं, अतः उनकी स्थितियों में एकत्व मानने में कोई बाधा नहीं आती । यदि कहा जाय कि प्रकृतियोंकी सदृशता असिद्ध है सो भी बात नहीं है, क्योंकि मोहप्रकृतिके उत्पन्न होने के पहले समय से लेकर जब तक उसका विनाश नहीं होता तब तक उसका मोहप्रकृतिरूपसे ही अवस्थान पाया जाता है, इसलिये उनमें सदृशता माननेमें कोई बाधा नहीं आती है । शंका- मोहकर्म की सामान्य स्थिति आदिरहित अर्थात् अनादि है, अतः उसकी प्ररूपण कैसे की जा सकती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि प्रवाहरूपसे अनादिकालीन मोहकर्मकी स्थितिको छोड़कर एक समयमें जो मोहनीय कर्मकी समस्त प्रकृतियां बन्धको प्राप्त होती हैं जो कि मोहप्रकृति सामान्यकी अपेक्षा एक हैं, उनकी स्थितिकी यहाँ प्ररूपणा की गई है, इसलिये कोई दोष नहीं है । . शंका- यदि ऐसा है तो मूलप्रकृतिस्थिति कैसे बन सकती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि संपूर्ण समयप्रबद्धों का जो प्रकृतिसमूह है उसे यहां मूलप्रकृति - रूपसे स्वीकार नहीं किया है । शंका- तो फिर यहां मूलप्रकृति पदसे किसका ग्रहण किया है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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