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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ एत्थ मूलपयडी ? एगसमयम्मि बद्धासेसमोहकम्मक्खंधाणं पयडिसमूहो मूलपयडी णाम । तिस्से हिदी मूलपयडिहिदी । पुध पुध अठ्ठावीसमोहपयडीणं हिदीओ उत्तरपयडिहिदी णाम । एवं हिदिविहत्ती दुविहा चेव होदि । ३. उत्तरपयडिहिदिविहत्तीए परूविदाए मूलपयडिहिदिविहत्ती णियमेणेव जाणिजदि तेण उत्तरपयडिहिदिविहत्ती चेव वत्तव्वा ण मूलपयडिहिदिविहत्ती, तत्थ फलाभावादो। ण, दवष्टियपज्जवहियणयाणुग्गहटुं तप्परूवणादो । एत्थतण वे वि 'च' सदा समुच्चए दहव्वा । एगेणेव 'च' सद्देण समुच्चयहावगमादो विदिय 'च' सदो अणत्थओ ति णावणेदु सकिज्जदे । अप्पिदेगणयं पडुच्च परूवणाए कीरमाणोए मूलपयडिहिदिविहत्ती उत्तरपयडिहिदिविहत्ती च उत्तरपयडिहिदिविहत्ती मूलपयडिडिदिविहत्ती चेदि एग'च'सद्दुच्चारणं मोत्तूण विदिय (च) सदुच्चारणाए अभावेण पुणरुत्तदोसाभावादो । 'एव'सदो इदिसहत्थे दहव्वो; अवहारणत्थस्स एत्थासंभवादो। समाधान-एक समयमें बंधे हुए संपूर्ण मोहनीय कर्मके स्कन्धोंके प्रकृतिसमूहका यहां मूलप्रकृतिरूपसे ग्रहण किया है। उस मूलप्रकृतिकी स्थितिको मूल प्रकृतिस्थिति कहते हैं। तथा मोहनीयकी पृथक पृथक अट्ठाईस प्रकृतियोंकी स्थितियोंको उत्तरप्रकृतिस्थिति कहते हैं। इस प्रकार स्थितिविभक्ति दो प्रकारकी ही होती है । ३. शंका–उत्तर प्रकृतिस्थितिविभक्तिका कथन करनेपर मूलप्रकृतिस्थितिविभक्तिका नियमसे ज्ञान हो जाता है, अतः उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्तिका ही कथन करना चाहिये, मूलप्रकृतिस्थितिविभक्तिका नहीं, क्योंकि मूलप्रकृतिस्थितिविभक्तिका कथन करनेमें कोई फल नहीं है ? समाधान-नहीं, क्योंकि द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनयका अर्थात् द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयवाले शिष्योंका अनुग्रह करनेके लिये दोनों स्थितियोंका कथन किया है। उपर्युक्त सूत्रमें आये हुए दोनों ही 'च' शब्द समुच्चयरूप अर्थमें जानना चाहिये । एक ही 'च' शब्दसे समुच्चयरूप अर्थका ज्ञान हो जाता है, अतः दूसरा 'च' शब्द अनर्थक है इसलिये उसे निकाला नहीं जा सकता है क्योंकि अर्पित एक नयकी अपेक्षा कथन करनेपर द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा 'मूलपयडिहिदिविहत्ती उत्तरपयडिहिदिविहत्ती च' इस प्रकार और पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा 'उत्तरपयडिहिदिविहत्ती मूलपयडिहिदिविहत्ती च' इस प्रकार प्राप्त होता है अतः एक 'च' शब्द के उच्चारणके सिवाय दूसरे 'च' शब्दका उच्चारण नहीं रहता, अतः पुनरुक्त दोष नहीं प्राप्त होता है। सूत्र में जो 'एव' शब्द आया है वह 'इति' शब्दके अर्थमें जानना चाहिये, क्योंकि यहां उसका अवधारणरूप अथें नहीं हो सकता है। विशेषार्थ-यहां स्थितिविभक्तिके दो भेद किये गये हैं-मूलप्रकृतिस्थितिविभक्ति और उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्ति । 'मूलप्रकृति' पदसे अवान्तर भेदोंकी गणना न कर सामान्य मोहनीय कर्मका ग्रहण किया है और 'उत्तरप्रकृति' पदसे मोहनीयके प्रत्येक भेदका पृथक् पृथक् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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