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________________ । vvvvvvvvvvvv जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [हिदिविहत्ती ३ * द्विदिविहत्ती दुविहा, मूलपयडि हिदिविहत्ती चेव उत्तरपयडिद्विदिविहत्ती चेव । १. हिदिविहत्ति त्ति अहियारो किमहमागओ ? पुव्वं पयडिविहत्तीए जाणाविदअहावीसमोहकम्मसहावस्स सिस्सस्स तेसिं चेव अट्ठावीसमोहकम्माणं पवाहसरूवेण आदिविवज्जियाणमेगेगसमयपबद्धविसेसप्पणाए सादिसपज्जवसाणाणं जहण्णुकस्सहिदीओ चोदस-मग्गण-हाणाणि अस्सिदण परूवण हिदिविहत्ती आगया । सा दुविहा मूलपयडिहिदिविहत्तीउत्तरपयडिहिदिविहत्तीभेदेण । तिविहा किण्ण होदि ? ण, मूलुत्तरपयडिहिदिवदिरित्ताए अण्णिस्से पयडिहिदीए अभावादो । णोकम्मपयडिरूव-रसादीणं हिदीणं हिदीओ अत्थि, ताओ एत्थ किण्ण उच्चंति ? अन्त भी है तथा उसकी पोरें भी स्वल्प होती हैं, पर यह संसार ऐसी बेल है जो सन्तानक्रमसे अनादि कालसे चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा, अतः उसके आदि, मध्य और अन्तका निर्णय नहीं किया जा सकता है। तथा उसमें अनन्त जन्म, जरा और मरण होते रहते हैं । ऐसी संसाररूपी बेलको जिन जिनेन्द्रदेवने छेद दिया उन्हें मैं ( वीरसेन स्वामी) नमस्कार करता हूँ। यहां प्रश्न होता है कि जिसके आदि, मध्य और अन्तका पता नहीं उसका छेद कैसे किया जा सकता है। समाधान यह है कि यद्यपि नाना जीवोंकी सन्तानकी अपेक्षा संसार आदि, मध्य और अन्तसे रहित है फिर भी कोई एक भव्य जीव उसका अन्त कर सकता है । इस प्रकार उक्त मंगल गाथामें वीरसेन स्वामीने दोनों प्रकारके संसारके स्वरूपका निर्देश कर दिया है। * स्थितिविभक्ति दो प्रकारकी है-मूलप्रकृति स्थितिविभक्ति और उत्तरप्रकृति स्थितिविभक्ति । ६१ शंका-स्थितिविभक्ति यह अधिकार किसलिये आया है ? समाधान-पहले जिस शिष्यको प्रकृतिविभक्ति नामक अधिकारके द्वारा मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंके स्वभावका ज्ञान करा दिया है उसे प्रवाहकी अपेक्षा आदिरहित और प्रत्येक समयमें बंधनेवाले एक एक समयप्रबद्धविशेषकी अपेक्षा सादि तथा सान्त उन्हीं मोहनीयकी अट्ठाईस कर्मप्रकृतियोंकी चौदह मार्गणाओंके आश्रयसे जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिका कथन करनेके लिये यह स्थितिविभक्ति नामक अधिकार आया है । - वह स्थितिविभक्ति मूलप्रकृतिस्थितिविभक्ति और उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्तिके भेदसे दो प्रकारकी है। शंका-वह तीन प्रकारकी क्यों नहीं होती ? समाधान-नहीं, क्योंकि, मूलप्रकृतिस्थितिविभक्ति और उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्तिको छोड़कर प्रकृतियोंकी अन्य स्थिति नहीं पाई जाती है, अतः स्थितिविभक्ति तीन प्रकारकी नहीं होती। शंका-नोकर्म प्रकृतियों के रूप और रसादिककी स्थितियाँ पाई जाती हैं, उनका यहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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