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________________ जयंधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिषिहत्ती ३ १५३. वेउव्वियमिस्स० मोह० जह० केव० १ ज० एयसमो, उक्क० संखेजा समया। अज० ज० अंतोमुहुत्त, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। एवमुवसम०सम्मामि० वत्तव्वं । आहार० मोह० जह० ज० एगसमो, उक्क० संखेज्जा समया । अज० ज० एयसमओ, उक्क० अंतोमु० । एवमवगद० अकसा०-सुहुम०-जहाक्वाद०. संजदे त्ति । आहारमिस्स० मोह० जह० [ज०] एगसमओ, उक्क० संखेजा समया । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० अंतोमु० । १५४. सासण. मो० जह० ज० एगसमओ, उक्क० संखज्जा समया। अज० ज. एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। एवं कालाणुगमो समत्तो। १५३. वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना सत्त्वकाल है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट संख्यात समय है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। इसी प्रकार उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । आहारककाययोगी जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविक्तिवाले जीवोंका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट संख्यात समय है । तथा अघन्य स्थिति विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तमुहूते है ! इसी प्रकार अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके कहना चाहिये। आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट संख्यात समय है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तमुहूर्त है। १५४. सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल संख्यात समय है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। विशेषार्थ-मोहनीयकी जघन्य सत्त्वस्थिति क्षपक सूक्ष्मसांपरायिक जीवके अन्तिम समयमें प्राप्त होती है। तथा क्षपकश्रेणी पर चढ़नेका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल संख्यात समय है, अतः ओबसे जघन्य स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल संख्यात समय कहा । ओघसे अजघन्य स्थितिका काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है। मूलमें दूसरीसे लेकर छठवीं पृथिवी तकके नारकी, मनुष्यत्रिक आदि कुछ ऐसी मागणाएं गिनाई हैं जिनमें जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल ओघके समान बन जाता है । इसके कारण भिन्न भिन्न हैं। दूसरी पृथिवीसे लेकर नारकियोंमें और ज्योतिषियोंमें तो यह कारण है कि जो उत्कृष्ट आयुके साथ उत्पन्न हों और उत्पन्न होनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त कालमें सम्यग्दृष्टि होकर अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर लें, उनके अन्तिम समयमें जघन्य स्थिति होती है। ऐसे जीव मरकर मनुष्योंमें ही उत्पन्न होंगे अतः उनका प्रमाण संख्यात ही होगा। यही कारण है कि इन मार्गणाओंमें जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल संख्यात समय कहा । सर्वाथसिद्धि और वैक्रियिककाययोगमें भी करीब इसी प्रकारका कारण जानना चाहिये। विभंगज्ञानमें यह कारण है कि चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपरिम अवेयकका देव यदि अन्तिम अन्तर्मुहूर्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त होता है तो उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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