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गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपडिविदिश्रद्धाच्छेदो
२२५ $ ४००. खइय० एकावीसपयडीणमोघभंगो। वेदयसम्मा० परिहार० भंगो । उवसम० अकसाइभंगो। सम्मामिच्छत्त० सोलसक..णवणोक० ज० अंतोकोडाकोडिसागरोवमाणि । सम्मत्त०-सम्मामि० जह० सागरोवमपुधनं । सासण० अकसाइभंगो।
__ परिहारविशुद्धि संयमके रहते हुए दर्शनमोहनीयकी क्षपणा और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना सम्भव है, अतः इसके इन प्रेकृतियोंकी जघन्य स्थिति अोधके समान कही। तथा यह संयम सातवें गुणस्थान तक ही होता है और सातवें गुणस्थानमें शेष कर्मोंकी जघन्य स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण पाई जाती है, अतः इसके शेष कर्मोंकी जघन्य स्थिति सौधर्म कल्पके समान कही। यहां सौधर्म कल्पके समान जघन्य स्थिति कहनेसे यह प्रयोजन है कि जिस प्रकार सौधर्म स्वर्ग में उक्त कर्मोकी जघन्य स्थिति प्राप्त करनेके लिये विशेषताका कथन किया है उसी प्रकार यहां भी जानना । तथा पीत और पद्म लेश्यावाले तथा संयतासंयतोंके परिहारविशुद्धि संयतोंके समान जघन्य स्थितिका कथन करना चाहिये । क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तमें सूक्ष्म लोभकी जघन्य स्थिति एक समय रह जाती है जो उस समय उदयरूप होती है, अतः इस संयमवालेके लोभकी जघन्य स्थिति एक समय कही। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्कको छोड़ कर शेष प्रकृतियोंका सत्त्व सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानमें उपशमश्रेणीकी अपेक्षासे पाया जाता है, अतः जिस प्रकार अकषायी जीवोंके शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति बतला आये उसी प्रकार सूक्ष्मसंपराय संयमवाले जीवोंके जानना । असंयतोंमें एकेन्द्रिय तिर्यंच मुख्य है और उन्हींके मिथ्यात्वको छोड़कर शेष सब प्रकृतियोंकी असंयतोंकी अपेक्षा जंघन्य स्थिति सम्भव है, अतः असंयतोंके मिथ्यात्वके बिना शेष सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति सामान्य तियचोंके समान कही। किन्तु असंयत मनुष्य भी होते हैं और मनुष्य असंयत दर्शनमोहनीयकी क्षपणा भी करते हैं अतः असंयतोंके मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति ओघके समान एक समय कही।
६४००. क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके इक्कीस प्रकृतियोंका अोधके समान .भंग है। वेदक सम्यग्दृष्टियोंके परिहारविशुद्धिसंयतोंके समान भंग है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंके अकषायी जीवोंके समान भंग है । सम्यग्मिथ्यात्वमें सोलह कषाय, नौ नोकषायोंका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल अन्तः कोडाकोड़ी सागर है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल सागर पृथक्त्व है । सासादनसम्यदृष्टियोंके अकषायी जीवोंके समान भंग है।
विशेषार्थ-- क्षायिकसम्यग्दृष्टिके २१ प्रकृतियां ही पाई जाती हैं और क्षपक श्रेणीका अधिकारी यही है अतः इसके २१ प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति ओघके समान बन जाती है। वेदकसम्यग्हष्टियोंमें विशुद्धिकी अपेक्षा परिहारविशुद्धिसंयत मुख्य है अतः इनके सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति परिहारविशुद्धिसंयतोंके समान कही। इसी प्रकार उपशम सम्यग्दृष्टियोंमें अकषायी जीव मुख्य हैं, अतः इनके सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति अकषायी जीवोंके समान कही। किन्तु इनके अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थिति ओघके समान जानना; क्योंकि यहां पर विसंयोजना संभव है। सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवके सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थिति अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण ही होती है। किन्तु जिसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्त्व सागरपृथक्त्व है वह मिथ्यादृष्टि जोव भी सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त हो सकता है, अतः सम्यग्मिथ्यादृष्टिके इन दोनोंकी जघन्य स्थिति पृथक्त्व सागर कही। तथा जो अकषायी जीव आकर सासादनसम्यग्दृष्टि होता है उसके सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति अन्तःकोडाकोड़ी
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