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________________ मा० २२ ] ट्ठिदिविहत्तीए उत्तरपयडिट्ठिदिविहन्तियपोस ३८१ मिच्छत्त० जह० सम्मत्तभंगो । किण्ह णील० तिरिक्खभंगो | णवरि सम्मत्त० सम्मामिच्छत्तभंगो । एवमोरालिय मिस्स०-मदि-सुदअण्णाण अभव० मिच्छादि ० - असण्णिति । वरि अनंताणु ० चक्क • मिच्छत्तभंगो | अभव० सम्मत्त ० - सम्मामि० णत्थि । ओरालियमिस्स० सम्म० तिरिक्खोघं । अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्परों अनुत्कृष्टके समान है । इसी प्रकार कापोतलेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये । तथा इसी प्रकार असंयतोंके भी जानना चाहिये । किन्तु इनके इतनी विशेषता है कि मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके स्पर्शका भंग सम्यक्त्वके समान | कृष्ण और नीललेश्यावालोंमें तिर्यंचों के समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है । इसी प्रकार औदारिकमिश्रकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग मिथ्यात्व के समान है । अभव्योंमें सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व ये दो प्रकृतियां नहीं हैं । तथा औदारिक मिश्रकाययोगियों में सम्यक्त्वका भंग सामान्य तिर्यंचों के समान है । I विशेषार्थ — तियँचों में मिध्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति बादर एकेन्द्रियों के होता है | वैसे तो बादर एकेन्द्रियोंका निवास लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रमें ही है किन्तु मरणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा इनका स्पर्श सब लोक में पाया जाता है, इसलिये इनका सब लोक स्पर्श बतलाया हैं । तथा इनकी अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श सब लोक है यह स्पष्ट ही है । वीरसेन स्वामीने यहां एक ऐसे पाठका उल्लेख किया है जिसके अनुसार तियेचोंमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिवालोंका क्षेत्र और स्पर्श लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण प्राप्त होता है । अब यदि इस पाठके अनुसार विचार करते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि मारणान्तिक समुद्घातके समय जघन्य स्थिति नहीं होती होगी । सात नोकषाय, अनन्तानुबन्धी चतुष्क और सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके होती है । यद्यपि पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंका मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदकी अपेक्षा स्पर्श सब लोक है तो भी उक्त प्रकृतियों की जघन्य स्थिति के समय ये पद सम्भव नहीं इसलिये इनका स्पर्श क्षेत्रके समान बन जाता है । यद्यपि सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य स्थिति के समय उपपाद पद सम्भव है तो भी इससे स्पर्शमें अन्तर नहीं पड़ता, क्योंकि ऐसे जीव संख्यातही होते हैं । तथा इनकी अजघन्य स्थितिवालों का स्पश क्षेत्रके समान है इसका यह अभिप्राय है कि जिस प्रकार इनका क्षेत्र सब लोक है उसी प्रकार स्पर्श भी सब लोक है । किन्तु सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग और सब लाक दोनों प्रकारका प्राप्त होता है। इसकी अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श भी ऐसा ही है । अतः सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिवालों का स्पर्श अनुत्कृष्टके समान कहा है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका स्पश भी अनुत्कृष्टके समान घटित कर लेना चाहिये । कापोतलेश्यावाले और असंयतसम्यग्दृष्टियों के यह व्यवस्था बन जाती है अतः इनके कथनको उक्त प्रमाण कहा है। किन्तु असंयतोंके क्षायिकसम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके समय मिध्यात्वकी भी क्षपणा होती है और इसलिये यहां मिध्यात्वकी ओघरूप जघन्य स्थिति बन जाती है । अब यदि ऐसे जीवोंके स्पर्शका विचार किया जाता है तो वह सम्यक्त्वको जघन्य स्थितिवालोंके समान लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही प्राप्त होता है, इसलिये असंयतों में मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिवालों का स्पर्श सम्यक्त्वके समान बतलाया है । कृष्ण और नील लेश्या में भी सब प्रकृतियोंकी जघन्य और जघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श तिर्यंचोंके समान बन जाता है । किन्तु इन दोनों लेश्याओं में कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टियों की उत्पत्ति न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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