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________________ ३८२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ६३८. पंचिंदियतिरिक्वतिए सत्तावीसं पयडीणं जह० लोग० असंखे०भागो। अज० लोग० असंखे भागो, सव्वलोगो वा । सम्मामि० जह० अज० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । णवरि जोणिणीसु सम्म० सम्मामिभंगो। पंचिंतिरि०अपज्ज-मणुसअपज्ज. जोणिणीभंगो । मणुसतिए पंचिं०तिरिक्खभंगो। ६६३६ देवेसु मिच्छ०-सम्म०-बारसक०-णवणोक० जह० खेत्तं, अज. होनेसे सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति एक समय प्रमाण नहीं प्राप्त होती और इसलिये सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका जो स्पर्श पूर्वमें बतलाया है वही यहां सम्यक्त्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका प्राप्त होता है। यही कारण है कि उक्त दोनों लेश्यात्रोंमें सम्यक्त्वके भंगको सम्यग्मिथ्यात्वके समान बतलाया है । औदारिकमिश्र आदि कुछ और मार्गणाएं हैं जिनमें उक्त व्यवस्था बन जाती है इसलिये उनके कथनको उक्त प्रमाण कहा है। किन्तु इन मागणाओंमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं होती, अतः इनमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श मिथ्यात्वके समान बतलाया है। अभव्य मार्गणामें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति नहीं होती, अतः इनका निषेध किया है । औदारिकमिश्रमें कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टियोंकी उत्पत्ति सम्भव है अतः इसमें सम्यक्त्वका भंग सामान्य तिथंचोंके समान बतलाया है। ___६६३८. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त और पंचेन्द्रिययोनिमती इन तीन प्रकारके तिर्यंचोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है । सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थिति विभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पश किया है। किन्त इतनी विशेषता है कि योनिमती तिर्यंचोंमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान हैं। पंचेन्द्रियतिथंचअपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें तिथंच योनिमती जीवोंके समान भंग है। सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान भंग है।। . विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय तिर्यंचत्रिकमें सत्ताईस प्रकृतियों की जघन्य स्थितिके जो स्वामी बतलाये हैं उन्हें देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि इनका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही प्राप्त होता है । अन्यत्र पचेन्द्रिय तिर्यंचत्रिकका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण व सब लोक बतलाया है । अब यदि इनमें उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिवालोंके स्पर्शका विचार करते हैं तो वह उतना बन जाता है, इसलिये यहां इनके स्पशको उक्त प्रमाण बतलाया है। किन्तु उक्त तिर्यंचोंमें सम्यग्मिथ्यात्वकी जयन्य और अजघन्य स्थिति सब अवस्थाओंमें सम्भव है और इसलिये उक्त तिर्यंचोंका जो स्पर्श बतलाया है वह सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा भी बन जाता है यही कारण है कि इनमें सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण व सब लोक बतलाया है। किन्तु योनिमती तिर्यंचोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते, अतः इनमें सम्यक्त्वा भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान बतलाया है। पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंकी जो जघन्य और अजघन्य स्थितिके स्वामी बतलाये हैं उसे देखते हुए इनका स्पर्श योनिमतियोंके समान बन जाता है, इसलिये इनके भंगको योनिमतियोंके समान कहा है। मनुष्यत्रिकमें पंचेन्द्रियतिर्यंचोंके समान कहनेका भी यही तात्पर्य है । १६६३६. देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जवन्य स्थिति. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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