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________________ २६६ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविही ३ उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० जहण्णुक्क० एगस०, अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादिरेयाणि । असंजद० सयभंगो णवरि मिच्छ० सोलसक० अणुक्क० जह० अंतोम० ।। ____ ५०६. चत्तारि कसाय० मणजोगिभंगो । मदिमुदअण्णा० ओघं । णवरि सम्मत्त०-सम्मामि० अणुक्क० उक्क० एइंदियभंगो। एवं मिच्छादि० । अभव० एवं चेव णवरि सम्मत्त०-सम्मामि० णत्थि । विहंग• सत्तमपुढविभंगो । गवरि सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमेइ दियभंगो। एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। असंयत सम्यग्दष्टियोंका भंग नपुंसकोंके समान है। किन्तु विशेषता इतनी है कि इनमें मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-स्त्रीवेदका उत्कृष्ट काल सौ पल्यपृथक्त्व है, अतः इसमें उपर्युक्त छब्बीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण जानना चाहिये। जो अट्ठाईस या चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव पूर्व पर्यायमें स्त्रीवेदी है और वहांसे मरकर तथा अट्ठाइस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि होकर पचवन पल्यकी उत्कृष्ट आयुके साथ देवपर्यायमें स्त्रोवेदी हुआ उसके साधिक पचवन पल्य तक सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थिति पाई जासकती है, अतः स्त्रीवेदमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल साधिक पचवन पल्य कहा है। शेष कथन सुगम है । एक जीव निरन्तर नपुंसकवेदके साथ अनन्त काल तक रह सकता है अतः नपुंसकवेदमें मिथ्यात्व आदि छब्बीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण कहा। तथा जो पूर्व पर्यायमें अट्ठाइस प्रकृतियोंकी सत्तावाला नपुंसकवेदी है और वहां से च्युत होकर तेतीस सागरकी आयुवाले नारकियोंमें उत्पन्न हुआ उसके साधिक तेतीस सागर काल तक सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता पाई जा सकती है अतः इन दो प्रकृतियों की अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है शेष कथन सुगम है। असंयतों का सब कथन नपुंसकों के समान है किन्तु मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिके जघन्य कालमें कुछ विशेषता है । बात यह है कि जिस नारकीने भवके उपान्त्य समयमें उक्त प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बांधो अन्तिम समयमें अनुत्कृष्ट स्थिति बांधी उसके नपुंसकवेदमें उक्त प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय बन जाता है पर ऐसा जीव मरकर भी असंयत ही रहता है, अतः असंयतके उक्त प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा है। ५०६. चार कषायवालोंका भंग मनोयोगियोंके समान है । मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानियों के ओघके समान जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल एकेन्द्रियों के समान है। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टिजीवोंके जानना चाहिये । अभव्योंके भी इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि अभव्योंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व नहीं हैं । विभंगज्ञानियोंका भंग सातवीं पृथिवीके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग एकेन्द्रियोंके समान है। विशेषार्थ-एक समय और अन्तर्मुहूर्त सामान्यकी अपेक्षा चारों कषायों और मनोयोगका काल समान है, अतः चारों कषायोंमें मनोयोगके समान कथन करनेकी सूचना की। मत्यज्ञानी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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