SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 304
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२) विदिविहत्तीए उत्तरपयडि हदिकालो २८५ $ ५०५. वेदाणुबादेण इत्थिवेदेसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्क० ओघं । अणुक्क० ज० एगसमो. उक्क. सगहिदी । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क० ज० एगसमो, उक्क० षणवण्णपलिदो० सादिरेयाणि । णवस० मिच्छत्त०-सोलसक०-णवणोक० उक्क० ओघं । अणुक्क० ज० एगस०, किया उसके मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी अनुत्कष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है । तथा वैक्रियिककाययोगका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है अतः यहां अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है शेष कथन पूर्ववत् जानना । वैक्रियिकमिश्रकाययोगका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है अतः इसमें मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जवन्य काल अन्तमुहूर्त तथा नौ नोकषाय मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त होता है। नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल पूर्ववत् जानना। शेष कथन सुगम है। आहारक काययोगके पहले समयमें ही सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति सम्भव है अतः यहां सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कष्ट काल एक समय कहा । जो जीव एक समय तक आहारक काययोगके साथ रहे और दूसरे समयमें मर गये या मूल शरीरमें प्रविष्ट हो गये उनके सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। तथा आहारक काययोगका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है अतः इनके सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा। अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसाम्परायिक संयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके आहारककाययोगियोंके समान काल जानना। क्योंकि उपशम श्रेणीकी अपेक्षा उक्त मार्गणाओंमें उक्त काल बन जाता है। आहारकमिश्रकाययोगीका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त बन जाता है। तथा उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके भी इसी प्रकार कथन करना चाहिये । कार्मणकाययोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है। अतः इसमें नौ नोकषायोंको छोड़कर शेष सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और सर्व प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय बन जाता है। किन्तु नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट कालमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि नौ नोकषायोंकी उत्कृष्टस्थिति अपर्याप्त अवस्थामें एक आवलिकाल तक भी पाई जासकती है पर ऐसा जीव अधिकसे अधिक दो विग्रहसे ही उत्पन्न होता है, अतः इसके कार्मणकाययोग दो समय पाया जाता है और इसीलिये कार्मणकाययागमें नौ नाकषायोंको उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। नौ नोकषायों की उत्कृष्ट स्थितिका जवन्य काल एक समय तो स्पष्ट ही है। तथा अनाहारक जीवोंके इसी प्रकार जानना, क्योंकि संसार अवस्थामें जहां कार्मणकाययोग होता है वहीं अनाहारक अवस्था पाई जाती है । ६५०५. वेदमार्गणाके अनुवाद से स्त्रीवेदियों में मिथ्यात्व, सोलहकषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका काल ओघके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक पचपन पल्य है। नपुंसकवेदियोंमें मिथ्यात्व, सोलहकषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका काल ओघके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जबन्य काल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy