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________________ २६४ जलसहिदे कसा पाहुडे [ द्विदिहिती ३ होहदि ति तस्स जह० हिदिविहत्ती । एव बारसक० - रावणोक ० । वरि खइय० दिडीसु वत्तव्वं । एवं जहाक्खाद० । ४७०. मदि- सुदअण्णाणीणं तिरिक्खोघं । णवरि सम्मत - श्रताणु ० चउक्क० एइ दियभंगी । एत्रमसण्णि० । विहंगणाणीसु मिच्छत्त० - सोलसक० -गवणोक० ज० कस्स १ अण्णद० जो उवरिमगेवज्जम्मि मिच्छतं गदो चरिमसमयणिप्पिदमाणओ तस्स जहणडिदिविहत्ती | सम्मत० - सम्मामि एइंदियभंगो | $ ४७१, आभिणि०- मुद० श्रहि० श्रघं । णवरि सम्मामि० जह० खवरणाए दायव्वं । एवं संजद० - हिदंस०- सम्मादिट्टि ति । मरणपज्जव० एव चेव । णवरि इत्थि० - वुस ० पुरिस० भंगो । ९ ४७२. सामाइय-छेदो० ओहिभंगी । णवरि लोहसंजल ० जह० कस्स ? अण्ण० चरिमसमयम्मि अणियट्टिक्ववयस्स । परिहार० मिच्छत्त-सम्मत - सम्मामि० श्रणंताणु० चउक० श्रहिभंगो । बारसक० - रावणोक० जह० क० १ जो खइयसम्मादिही जहासंभवेण उवसमसेटिं चढिय प्रोयरिय परिणामपच्चएण परिहार० जादो से काले सत्कर्मवाला तदनन्तर कालमें सकषायी होगा उसके उक्त कर्मोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है । इसी प्रकार बारह कषाय और नौ नोकषयोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति जाननी चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनकी जघन्य स्थितिविभक्ति क्षायिकसम्यग्दृष्टियों के कहनी चाहिये। इसी प्रकार यथाख्यातसंयतों के जानना चाहिये । ६ ४७० मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी के सामान्य तिर्यंचोंके समान जघन्य स्थितिविभक्ति होती है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति एकेन्द्रियों के समान होती है । इसी प्रकार असंज्ञी पचेन्द्रियके जानना चाहिये । विभंगज्ञानियों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितित्रिभक्ति किसके होती है ? जो कोई एक उपरिमयैवेयक में मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है उसके वहांसे निकलनेके अन्तिम समयमें उक्त कर्मोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका भंग एकेन्द्रियों के समान है । १४७१, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंके श्रोघके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यग्मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति केवल क्षपकके कहनी चाहिये। इसी प्रकार संयत, अवधिदर्शनवाले और सम्यग्दृष्टि जीवों के जानना चाहिये । मनः पर्ययज्ञानमें भी इसी प्रकार कहना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भंग पुरुषवेदके समान है । 1 ९४७२. सामायिक और छेदोपस्थापना संयममें अवधिज्ञानके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? किसी अनिवृत्तिकरण क्षपक जीवके अन्तिम समयमें लोभ संज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है । परिहार विशुद्धिसंयममें मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति अवधिज्ञानियोंके समान होती है। तथा बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो क्षायिक सम्यग्यदृष्टि जीव यथायोग्य उपशम श्रेणी पर चढ़कर और उतरकर परिणामों के अनुसार परिहारविशुद्धिसंयत हो गया और तदनन्तर कालमें क्षपक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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