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________________ गा० २२ ] द्विदिविहत्तीए उरपयडिद्विदिसामित्त २६५ खवगसेढिअभिमुहो होहदि चि तस्स जहण्णहिदिविहत्ती । एवं संजदासजद० । णवरि से काले संजम पडिवज्जिदूण अंतोमुहुत्तेण सिझहिदि ति तस्स जहण्णहिदिविहत्ती। सुहुमसांपराइय० अकसाइभंगो। णवरि लोभसंजल० ओघं । असंजद. तिरिक्खोघं । णवरि मिच्छत्त०-सम्मामि० ओघं । ४७३. तिएिणले० तिरिक्खोघं । णवरि किण्ह-णीललेस्सासु सम्मत्त. सम्मामिच्छत्तभंगो । अणंताणु०चउक्क० ओघं । सेसलेस्साणं परिहार भंगो । अभव० छब्बीसपयडीणं मदिअण्णाणिभगो। ४७५. खइय० एक्कवीस. ओहिभंगो । वेदयसम्मादि० मिच्छत्त-सम्मामि० अणंताणु चउक्कं ओघं । णवरि सम्मामि० उव्वेल्लणाए णत्थि । सम्मत-बारसक०णवणोक० ज० कस्स ? अण्ण० चरिमसमयअक्खीणदसणमोहणीयस्स । ४७५. उवसम० मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-बारसक०-णवणोक० जह क० १ अण्ण्ण० जहासंभवेण उवसमसेढिं चडिय सव्वुक्कस्समंतोमुहुत्तद्धमच्छिय से काले वेदगं पडिवज्जिहदि त्ति तस्स जहण्णहिदि विहत्ती । अणंताणु०चउक्क० ज० श्रेणीके सन्मुख होगा उस परिहारविशुद्धिसंयतके जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। इसी प्रकार संयतासंयतोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि जो संयतासंयत तदनन्तर कालमें संयमको प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा सिद्ध होगा उसके जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। सूक्ष्मसांपरायिक संयत जीवोंके कषायरहित जीवोंके समान जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति ओघके समान है। असंयतोंके सामान्य तिर्यंचोंके समान सब कर्मोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति जाननी चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है, कि इनके मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति ओघके समान है। ४७३. कृष्णादि तीन लेश्याओंमें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। किन्तु इतनी विशेषता है कि कृष्ण और नीललेश्यामें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति ओषके समान है। शेष लेश्याओंमें जघन्य स्थितिविभक्ति परिहारविशुद्धि संयमके समान है । अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति मत्यज्ञानियोंके समान है। ६४७४. क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें इक्कीस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति अवधिज्ञानियों के समान है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति उद्वेलनामें नहीं होती, क्योंकि यहाँ उसकी उद्वेलना संभव नहीं है। सम्यक्त्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय नहीं किया है ऐसे किसी जीवके दर्शनमोहनीयके क्षय होनेके अन्तिम समयमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। ४७५ उपशमसम्यक्त्वमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? यथासंभव जो कोई जीव उपशमश्रेणी पर चढ़कर और सबसे उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कालतक वहाँ रहकर तदनन्तर समयमें वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त होगा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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