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________________ २६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [विदिविहत्ती ३ जो वट्टमाणी तस्स जहण्णहिदिविहनी । सम्मत-सम्मामि०-अणंताणु० चउक्काणं णिरओघं । ४६०. पंचिंदियतिरिक्ख – पंचिंतिरिक्वपज्जत - पंचि०तिरि जोणिणीसु मिच्छन-बारसक-भय-दुगुंछाणं ज० कस्स ? अण्ण • जो बादरेइंदिओ हदसमुप्पत्तियकम्मेण पंचिंदियतिरिक्खेसु उववण्णो तस्स पढमविदियविग्गहे वट्टमाणस्स जहण्णहिदिविहत्ती । सम्मत्त०-सम्मामिच्छन-अणंताणु चउक्काणं तिरिक्खोघं । सत्तणोक० ज० कस्स ? अण्ण जो बादरेइंदिओ हदसमुप्पत्तियकम्मेण पंचिंदियतिरिक्खेसु उववण्णो एवमुववज्जिय अंतोमुहुत्तमच्छिय से काले अप्पणो बंधमाढविहदि चि तस्स जहण्ण हिदिविहत्ती । णवरि पंचिंदियतिरिक्वजोणिणीसु सम्मत्तस्स सम्मामिच्छत्तभंगो । पंचिं तिरि अपज्जा पंचिंतिरि०जोणिणीभंगो। णवरि अणंताणु०चउक्कस्स मिच्छत्तभंगो । एवं मणुसअपज्ज०-सव्वविगलिंदिय-पंचिं०अपज्ज-तसअपज्जचे शि। ४६१. मणुसिणीसु अहणोक० ज० कस्स ? अण्ण. अणियट्टिखवयस्स चरिमहिदिखंडए वट्टमाणस्स जहण्णहिदिविहती । सेसमोघं ।। ४६२. जोइसि० विदियपुढविभंगो । सोहम्मादि जाव उपरिमगेवज्जो ति मिच्छच० ज० कस्स ? अण्ण. जो दो बारे कसाए उवसामेदूण चउवीससंतकम्मिश्रो के अन्तिम समयमें जो विद्यमान है उसके जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति सामान्य नारकियोंके समान है। ४६०. पंचेन्द्रिय तियेंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती जीवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो कोई एक बादर एकेन्द्रिय जीव हतसमुत्पत्ति कर्मके साथ पंचेन्द्रिय तियचोंमें उत्पन्न हुआ। पहले और दूसरे विग्रहमें विद्यमान उस जीवके उक्त कमोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति सामान्य तियेंचोंके समान है। सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो कोई एक बादर एकेन्द्रिय जीव हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ पंचेन्द्रिय तियचोंमें उत्पन्न हुआ । वहाँ इस प्रकार उत्पन्न होकर और अन्तर्मुहूर्त कालतक वहाँ रहकर तदनन्तर कालमें अपने बन्धका आरम्भ करेगा उसके जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय योनिमती तियंचोंमें सम्यक्त्व प्रकृतिका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें पंचेन्द्रिय तियेच योनिमतीके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्तकोंके जानना चाहिये। . ६४६१. मनुष्यनियोंमें आठ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? अन्तिम स्थितिकाण्डकमें विद्यमान किसी अनिवृत्तिकरण क्षपकके होती है । शेष कथन ओघके समान है । ६४६२. ज्योतिषियोंमें दूसरी पृथिवीके समान भंग है। सौधर्म कल्पसे लेकर उपरिम वेयक वकके जीवोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? दो बार कषायों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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