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अयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ज० ओघं । अज० ज० खुद्दाभवग्गहणं अंतोमु०, उक्क० सगहिदी । सम्मत्त-सम्मामि० ज० जहएणुक० एगस० | अज० ज० एगस०, उक्क० वे छावहिसागरो० सादिरेयाणि । अणंताणु०चउक्क० ज० जहण्णुक्क० एगस । अज० ज० अंतोमु० [एगसमश्रो वा], उक्क० सगहिदी । एवं चक्खु०-सण्णि त्ति ।।
$ ५२५. कायाणुवादेण पुढवि०-आउ०-तेउ०-चाउ०-वणप्फदि०-णिगोद० और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका काल ओघके समान है तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल पर्याप्तकों के बिना शेषमें खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और पर्याप्तकोंमें अन्तर्मुहूर्तप्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य
और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त या एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार चक्षदशनवाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका काल जो अोघमें कहा है वह पंचेन्द्रियादिकी प्रधानतासे कहा है, अतः इन चारोंमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका काल ओघके समान जानना । तथा पंचेन्द्रिय और त्रसोंमें उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और पंचेन्द्रिय पर्याप्त तथा त्रस पर्याप्तकोंमें उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त होगा। तथा उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण होगा। इनमें पंचेन्द्रियोंकी कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक हजार सागर, पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंकी कायस्थिति सौ पृथक्त्व सागर, त्रसकायिकोंकी कायस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागर और बस पर्याप्तकोंकी कायस्थिति दो हजार सागर है। अतः इतने काल तक उक्त जीवोंको उक्त प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिके साथ रहने में कोई बाधा नहीं है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय कृतकृत्य वेदकके अन्तिम समयमें होगा । तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट एक समय काल उद्वेलना और कृतकृत्यवेदक इन दोनोंकी अपेक्षा हो सकता है। तथा इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व साधिक एक सौ बत्तीस सागर तक रह सकता है अतः उक्त दो प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ बत्तीस सागर कहा। विसंयोजनाके अन्तिम समयमें अनन्तानुबन्धाकी जघन्य स्थिति प्राप्त होती है और उसे चारों प्रकारके जीवोंके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना हो सकती है अतः इनके अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है ऐसा जीव यदि मिथ्यात्वमें जाय और वहां अतिलघु काल तक रह कर और पुनः वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर ले तो उसे ऐसा करने में अन्तमुहूर्त काल लगता है अतः अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा। परन्तु आयुके अन्तिम समयमें एक समय कालवाला सासदन हुआ और मरकर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेवाले किसी भी चौवीसकी सत्तावाले पंचेन्द्रिय या त्रसके अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय भी प्राप्त होता है। तथा उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ठ स्थिति प्रमाण होता है यह स्पष्ट ही है।
६५२५. कायमार्गणाके अनुवादसे सभी पृथिवीकायिक, सभी जलकायिक, सभी अग्नि
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