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________________ गा० २२.] हिदिविहत्तीए सामित्त $ २३. एवं सत्तपुढविणेरइय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिय-मणुसतिय-देवभवणादि जाव सहस्सार०-पंचिंदिय०-पंचिं०पज्ज-तस-तसपज्ज०-पंचमण-पंचवचि०कायजोगि०-ओरालि०--वेउविय-तिण्णिवेद-चत्तारिकसाय-मदिसुदअण्णाण-विहंग०असंजद०-अचक्खु०-चक्खुदं०-पंचले०-भवसिद्धि -अभवसिद्धि-मिच्छादि०-सण्णि०आहारि त्ति । २४. पंचिंदियतिरिक्वअपज्ज. मोह० उक्क. कस्स ? अण्णदरस्स सण्णिपंचिंतिरिक्खो वा मणुस्सो वा उकस्सहिदि बंधिय पडिभग्गो होदूण हिदिघादमकाऊण पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु उववण्णो तस्स पढमसमयउववण्णल्लयस्स उक्कस्सिया हिदी । एवं मणुस्सअपज्जा बादरेइंदियअपज्ज-मुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्तसव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज०-बादरपुढवीअपज्ज०-बादरआउ०अपज्ज०-बादरवणप्फदिअपज्ज०-सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-मुहुमआउ०पज्जत्तापज्जत्त-मुहुमवणप्फदिपज्ज तापज्जत्त-सव्वणिगोद०-सव्ववाउ०-सव्वतेउ०-तसअपज्जत्ते त्ति । $ २५. आणदादि जाव उवरिमगेवज्ज. उक० कस्स ? जो दव्वलिंगी उक्कस्सहिदिसंतकम्मिओ पढमसमयउववण्णो तस्स । अणुद्दिसादि जाव सवढे त्ति मोह. २३. इसी प्रकार अर्थात् ओघप्ररूपणाके समान सातों पृथिवियोंके नारकी, सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, योनिमती तिर्यंच, सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, मनुष्यनी ,सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी,तीनों प्रकारके वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, चतुदर्शनी, कृष्ण आदि पांच लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए । $२४. पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति किसके होती है ? जो संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च या मनुष्य उत्कृष्ट स्थितिका बंध करके और वहांसे च्युत होकर स्थितिका घात न करके पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ है, उसके उत्पन्न होनेके पहले समयमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है । इसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय तथा उसके पर्याप्त और अपर्याप्त, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक तथा उसके पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक व उसके पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और उसके पर्याप्त और अपर्याप्त, सभी निगोद, सभी वायुकायिक, सभी अग्निकायिक और त्रस लब्ध्यपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। २५. आनत स्वर्गसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोंमें उत्कृष्ट स्थिति किसके होती है ? जिसके मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिकी सत्ता है ऐसा जो द्रव्यलिंगी जीव आनतादि स्वर्गों में उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके पहले समयमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है । अनुदिशसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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