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________________ aamanawwwmom जयधवलासहिदे कसायनहुडे [द्विदिविहत्ती ३ अण्णादिय० धुवा वा अद्भुवा वा । एवमचक्खु०-भवसिद्धि० । णवरि भवसि० धुवं पत्थि । सेसासु मग्गणासु उक्क० अणुक्क० जह० अजह० सादि-अधुवायो । ___ एवं सादि-अर्धवाणुगमो समत्तो। ___$ २२. सामि दुविधं-जहण्णं उक्कस्सं च । तत्थ उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण उक्कस्सहिदी कस्स ? अण्णदरस्स, जो चउहाणियजवमज्झस्स उवरि अंतोकोडाकोडिं बंधतो अच्छिदो उक्कस्ससंकिलेसं गदो । तदो उक्कस्सहिदी पबद्धा तस्स उक्कस्सयं होदि। एवमोघपरूवणा गदा। और जघन्यविभक्ति क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। अजघन्य विभक्ति क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? अनादि ध्रुव और अर्द्ध व है। इसी प्रकार अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि भव्यजीवोंके ध्रुव यह विकल्प नहीं है। शेष मार्गणाओंमें उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य ये चारों सादि और अध्रुव हैं। विशेषार्थ-मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति कादाचित्क है और जघन्य स्थितिविभक्ति क्षपकणिके सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समयमें होती है इसलिए ये तीनों सादि और अध्रुव कही हैं। किन्तु अजघन्य स्थितिविभक्तिका विचार इससे कुछ भिन्न है । बात यह है कि जघन्य स्थितिविभक्तिके प्राप्त होनेके पूर्व तक अनादि कालसे अजघन्य स्थितिविभक्ति होती है इसलिए तो वह अनादि कही है और भव्योंकी अपेक्षा अध्रुव तथा अभव्योंकी अपेक्षा ध्रुव कही है । इसमें सादि विकल्प सम्भव नहीं है, क्योंकि एक बार इसका अन्त होने पर पुनः इसकी उत्पत्ति नहीं होती। अचक्षुदर्शन और भव्य ये दो मार्गणाऐं क्रमसे क्षीणमोह गुणस्थानके अन्त तक और अयोगिकेवली गुणस्थान तक निरन्तर बनी रहती हैं इसलिए इनमें ओघप्ररूपणा अविकल घटित होनेके कारण वह उक्त प्रकार कही है । मात्र भव्य मार्गणामें अजवन्य स्थितिविभक्तिका ध्र वपना सम्भव न होनेसे उसका निषेध किया है। शेष मार्गणाऐं कादाचित्क हैं इसलिए उनमें चारों स्थितिविभक्तियोंके सादि और अध्र व ये दो विकल्प कहे हैं। केवल अभव्य मार्गणा रह जाती है क्योंकि यह कादाचित्क नहीं है पर इसमें ओघके अनुसार जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्ति सम्भव नहीं है इसलिए इसमें भी चारों स्थितिविभक्तियां सादि और अध्र व कही हैं। इस प्रकार सादि-अध्रु वानुगम समाप्त हुआ। $२२. स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे पहले उत्कृष्ट स्वामित्वका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थिति किसके होती है ? जो चतुःस्थानीय यवमध्यके ऊपर अन्तः कोडाकोड़ीप्रमाण स्थितिको बांधता हुआ स्थित है और अनन्तर उत्कृष्ट सक्लेशको प्राप्त होकर जिसने उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है ऐसे किसी भी जीवके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है । इस प्रकार ओघप्ररूपणा समाप्त हुई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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