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________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए सादि-अर्धवाणुगमो भेदो ? वुच्चदे--चरिमणिसेयस्स जो कालो सो उकस्सश्रद्धाछेदम्मि भणिदउक्कस्सहिदी णाम । तत्थतणसव्वणिमेयाणं समूहो सवहिदी णाम । तेण दोहमत्थि भेदो । उक्कस्सविहत्तीए उक्कस्सअद्धाछेदस्स च को भेदो ? बुच्चदे--चरिमणिसेयस्स कालो उक्कस्सश्रद्धाछेदो णाम। उक्कस्सहिदिविहत्ती पुण सव्वणिसेयाणं सव्वणिसेयपदेसाणं वा कालो । तेण एदेसि पि अत्थि भेदो। एवं संते सव्वुक्कस्सविहत्तीणं णत्थि भेदो त्ति णासंकणिज्जं । ताणं पि णयविसेसवसेण कथंचि भेदुवलभादो । तं जहा--समुदायपहाणा उक्कस्सविहत्ती । अवयवपहाणा सव्वविहत्ति त्ति । $ २१. सादि०४ दुविहो णिद्देसो--ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह. उक्क० अणुक्क० जह० किं सादि०४ ? सादि० अर्धव० । अजह • किं सादि०४ ? समाधान - अन्तिम निषेकका जो काल है वह उत्कृष्ट अद्धाच्छेदमें कही गई उत्कृष्ट स्थिति है । तथा वहाँ पर रहनेवाले सम्पूर्ण निषेकोंका जो समूह है वह सर्वस्थिति है, इसलिए इन दोनोंमें भेद है। शंका-उत्कृष्ट विभक्ति और उत्कृष्ट अद्धाच्छेदमें क्या भेद है ? समाधान-अन्तिम निषेकके कालको उत्कृष्ट अद्धाच्छेद कहते हैं और समस्त निषेकों के या समस्त निषेकोंके प्रदेशोंके कालको उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति कहते हैं,इसलिए इन दोनोंमें भी भेद है। ऐसा होते हुए सर्वविभक्ति और उत्कृष्टविभक्ति इन दोनों में भेद नहीं है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि नय विशेषकी अपेक्षा उन दोनों में भी कथंचित् भेद पाया जाता है। वह इस प्रकार है-उत्कृष्ट विभक्ति समुदायप्रधान होती है और सर्वविभक्ति अवयवप्रधान होती है। विशेषार्थ- उत्कृष्ट अद्धाच्छेद, सर्वस्थितिविभक्ति और उत्कृष्टस्थितिविभक्ति ये शब्द प्रयोगमें आते हैं, इतना ही नहीं, इन नामवाले स्वतन्त्र अधिकार भी हैं, इसलिए इनमें क्या भेद है यही यहां बतलाया गया है। खुलासा इस प्रकार है- मान लो किसी जीवने मिथ्यात्वका सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध किया। ऐसी अवस्थामें सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरके अन्तिम समयमें स्थित जो निषेक है उसका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण हुआ , क्योंकि इतने काल तक इसके सत्तामें रहनेकी योग्यता है । यह तो उत्कृष्ट अद्धाच्छेदका उदाहरण है। तथा इस उत्कृष्ट स्थितिबन्धके होने पर जो प्रथम निषेकसे लेकर अन्तिम निषेक तक निषेक रचना होती है वह सर्वस्थितिविभक्ति है, क्योंकि यहां सर्व पद द्वारा सब निषेक लिए गए हैं। अब रही उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सो इसमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होने पर प्रथम निषेकसे लेकर अन्तिम निषेक तककी सब स्थितियोंका ग्रहण किया है। यहां सत्ताका प्रकरण होनेसे सत्ताकी अपेक्षा इस अन्तरको घटित कर लेना चाहिए। इतना विशेष जानना चाहिए कि यह सब जहां ओघ उत्कृष्ट सम्भव हो वहां ओघ उत्कृष्ट कहना चाहिए और जहां ओघ . उत्कृष्ट सम्भव न हो वहां आदेश उत्कृष्ट प्राप्त कर लेना चाहिए। २१. सादि, अनादि, ध्र व और अध्र व अनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्टविभक्ति, अनुत्कृष्टविभक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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