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________________ १३६ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे द्विदिविहत्ती ३ २४६. वडि ति तत्थ इमाणि तेरस प्राणियोगदराणि-समुकित्तणादि जाव अप्पाब हुए त्ति । समुक्कित्तणाणु० दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ अोघेण तिण्णि वड्डी तिणि हाणी असंखेज्जगुणहाणी अवहाणं च अत्थि । एवं मणुसतियपंचिंदिय-पंचिं०पज्ज०-तस-तसपज्ज-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०तिण्णिवेद-चत्तारिकसाय-चक्खु०-अचक्खु०-भवसि०-सण्णि-आहारए त्ति । २४७ आदेसण गेरइएस मोह० अत्थि तिणि वड्डी तिण्णि हाणी अवहाणं च । एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वतिरिक्ख-मणुमअपज्ज-देव-भवणादि जाव सहस्सार०पंचिं अपज्ज०-तसअपज्ज०-ओरालियमिस्स-वेरबिय०-वेउ०मिस्स-कम्मइय-तिण्णिअण्णाण-असंजद०-पंचले०-अभव०-मिच्छादि०-असण्णि०-अणाहारए त्ति । २४८. आणदादि जाव सव्वदृ० मोह० अत्थि असंखेजभागहाणी संखेज्जभागहाणी । एवं परिहार०-संजदासंजद०-उवसमसम्माइहि त्ति । एइंदिएसु अत्थि असंखेजभागवडी तिण्णि हाणी अवहाणं च । एवं पंचकाय० । विगलिंदिएसु अस्थि दो वड्डी तिण्णि हाणी अवहाणं च । आहार०-आहारमिस्स० अत्थि असंखे०भागहाणी । एवमकसा०-जहाक्रवाद०-सासण० । अवगद० अत्थि असंखेजभागहाणी [संखेज्जभागहाणी ] संखे०गुणहाणी। एवं सुहुमसांप०-वेदय-सम्मामि०दिहीणं । ६२४६. अब वृद्धि अनुयोगद्वारका प्रकरण है। उसके कथनमें समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक ये तेरह अनुयोगद्वार हैं। उनमेंसे समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा तीन वृद्धि, तीन हानि, असंख्यातगुणहानि और अवस्थान हैं। इसी प्रकार मनुष्यत्रिक, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये। ६२४७. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीय कर्मकी तीन वृद्धियाँ, तीन हानियाँ और अवस्थान हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी तिर्यश्च, मनुष्यअपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देव, पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, बस अपर्याप्तक, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रिीयककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कामणकाययोगी, तीनों अज्ञानी, असंयत, कृष्णादि पाँच लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्याददृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। .. ६२४८. आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें मोहनीय कर्मकी असंख्यात भागहानि और संख्यातभागहानि है। इसी प्रकार परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। एकेन्द्रियोंमें असंख्यातभागवृद्धि, तीन हानियाँ और अवस्थान हैं। इसी प्रकार पाँचों स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिये। सभी विकलेन्द्रियों में दो वृद्धियाँ, तीन हानियाँ और अवस्थान हैं। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें असंख्यातभागहानि है। इसी प्रकार अकषायी, यथाख्यातसंयत और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। अपगतवेदी जीवोंमें असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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