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________________ गा. २२ ] द्विदिविहत्तीए वड्ढीए समुक्कित्तणा १३७ आभिणि-सुद०-ओहि० अत्थि चत्तारि हाणीओ। एवं मणपज०-संजद०-सामाइयछेदो०-ओहिदंस०-सुक्कलेस्सि०-सम्मादिट्टी०-खइय० । एवं समुक्कित्तणा समत्ता। है। इसी प्रकार सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, वेदकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें चार हानियाँ हैं । इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले, सन्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । विशेषार्थ—पदनिक्षेपमें उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि, उत्कृष्ट अवस्थान, जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थानका कथन किया जाता है। किन्तु वे उत्कृष्ट वृद्धि आदि एक रूप न होकर अनेकरूप होते हैं । इसका ज्ञान पदनिक्षेपसे न होकर वृद्धि अनुयोगद्वारसे होता है, अतः पदनिक्षेप विशेषको वृद्धि कहते हैं - समुत्कीर्तना, स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इसके ये तेरह अनुयोगद्वार हैं। इनमेंसे पहले समुत्कीर्तनाका विचार किया गया है। इसकी अपेक्षा ओघसे असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि ये तीन वृद्धियां; असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, संख्यात गुणहानि ये तीन हानियां और असंख्यात गुणहानि तथा इनके अवस्थान होते हैं । विवक्षित स्थितिमें जो वृद्धि या हानि होती है वह जब तक उसके असंख्यातवें भाग प्रमाण रहती है तब तक उसे असंख्यात भागवृद्धि या असंख्यात भागहानि कहते हैं। जब वह वृद्धि या हानि विवक्षित स्थितिके संख्यातवें भागप्रमाण हो जाती है तब उसे संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागहानि कहते हैं। तथा जब वह वृद्धि या हानि विवक्षित स्थितिसे संख्यातगुणी वृद्धि या हानिरूप हो जाती है तब उसे संख्यात गुणवृद्धि या संख्यात गुणहानि कहते हैं। इसी प्रकार असंख्यात गुणहानिके सम्बन्धमें भी जानना चाहिये। यह असंख्यात गणहानि केवल अनिवृत्तिक्षपकके ही होती है, अन्यत्र नहीं । अवस्थान सुगम है । यदि वृद्धियोंके बाद अवस्थान हुआ तो वह वृद्धि सम्बन्धी अवस्थान कहलाता है और हानियोंके बाद अवत्थान हुआ तो वह हानि सम्बन्धी अवस्थान कहा जाता है। मनुष्य त्रिक आदि कुछ ऐसी मागणाएं हैं जिनमें यह ओघप्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है अतः उनके कथनको ओघके समान कहा । नारकियोंमें केवल असंख्यात गुणहानि सम्भव नहीं, क्योंकि वहाँ अनिवृत्ति क्षपक जीव नहीं पाये जाते । शेष सब सम्भव हैं, इसी प्रकार सातों नरकके नारकी आदि मूलमें गिनाई हुई और भी मार्गणाएं हैं जिनमें यह व्यवस्था बन जाती है, अतः उनके कथनको सामान्य नारकियोंके समान कहा । अानतकल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण ही होती है और वह वहाँ उत्पन्न होनेके पहले समयसे लेकर उत्तरोत्तर घटती ही जाती है, जो प्रकृतियोंकी अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजनाके समय संख्यातवें भागप्रमाण घटती है और शेष समयमें असंख्यातवें भागप्रमाण ही घटती है । अतः यहां दो हानियां ही कहीं। परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके इसी प्रकार जानना । एकेन्द्रियोंमें जघन्य स्थितिबन्ध पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम एक सागरप्रमाण और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागर प्रमाण होता है, अतः यहां वृद्धिरूपसे असंख्यात भागवृद्धि ही सम्भव है, क्योंकि किसी जीवने यदि जघन्य स्थिति से उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्ध किया तो भी जघन्य स्थितिके असंख्यातवें भाग की ही वृद्धि हुई। पर इनके असंख्यात गुणहानिको छोड़ कर शेष तीनों हानियां सम्भव हैं, क्योंकि जो संज्ञी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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