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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहत्ती ३ सम्मामि०-सण्णि-आहारि त्ति । ६१५. तिरिक्खेसु मिच्छत्त-बारसक०-भय-दुगुंछ० णारगभंगो । सेसमोघं । एवमसंजद० तिण्णिलेस्साणं । णवरि असंज-मिच्छ० ओघ । ९१६, एइंदिएसु मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक०-सम्मत्त०-सम्मामि० णारयभंगो । एवं वणप्फदि-णिगोद०-बादरमुहुमपज्जत्तापज्जत्त-कम्मइय-अण्णाहारि त्ति । ओरालियमिस्स० तिरिक्खोघं । णवरि अणंताणु०चउक्क० अपज्जत्तभंगो। एवं मदि-सुदअण्णा०-मिच्छादि०-असण्णि ति। अभव० छब्बीसपयडी० ओरालियमिस्सभंगो। एवं चउवीस अणियोगद्दाराणि समत्ताणि । सम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना । ६६१५. तियचोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साका भंग नारकियोंके समान है। शेष कथन ओघके समान है। इसी प्रकार असंयत और कृष्णादि तीन लेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंयतोंके मिथ्यात्वका कथन ओघके समान है। ६१६. एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, सम्यक्त्व, और सम्यग्मिथ्या. त्वका भंग नारकियोंके समान है। इसी प्रकार वनस्पतिकायिक और निगोद तथा इनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त, तथा कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। औदारिकमिश्रकाययोगियोंके सामान्य तियचोंके समान जानना। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग अपर्याप्तकोंके समान है। इसी प्रकार मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके जानना। अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भंग औदारिकमिश्रकाय. योगियोंके समान है। इस प्रकार चौबीस अनुयोगद्वार समाप्त हुए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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