________________
गा० २२ ]
हिदिविहतीए उत्तरपय डिडिदिविहत्तिय अप्पा बहुअं
५४३
ग०-आभिणि० - सुद०-ओहि ० -संजदासंजद० - चक्खु ० - ओहिदस० - तिण्णिले ० - सम्मादि ० खइयसम्मा० - वेदयसम्मादि ० - उवसम० - सासण० सम्मामि० सण्णिति ।
९ ९१३. मणुसज्ज ० - मणुसिणीसु सव्वपयडीणं सञ्वत्थोवा उक्क० द्विदि० जीवा । अणुक० हिदि जीवा संखे० गुणा । एवं सव्वड ० - आहार०-३ आहारमिस्स - अवगद ०अकसा० - मणपज्ज० णाणी - संजद ० - सामाइय - छेदो० - परिहार० - सुहुमसांप ० - जहाक्खाद ० संजदेति ।
एवमुकस्सओ जीव अप्पाबहुगाणुगमो समत्तो ।
१४. पदं । दुविहो लिसो — श्रघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वत्थोवा सव्वपयडीणं ज० हिदि० जीवा । अज० उक्कस्सभंगो । एवं सव्वणेरइयसव्वपंचिंदियतिरिक्ख- सव्वमरणुस - सव्वदेव- सव्व विगलिंदिय- सव्वपंचिंदिय- चत्तारि कायसव्वतस - पंचमरण- पंचवचि ० कायजोगि० ओरालि० - वेउब्वि० - वेडब्बियमिस्स ० श्राहार०आहार • मिस्स ० - तिणिवेद० अवगद ० - चत्तारिक० अकसा०-विहंग०- आभिणि० - सुद०श्रोहि ०-मणपज्ज० - संजद० सामाइयछेदो ० - परिहार०- सुहुम० - जहाक्खाद ० संजदासंजद०चक्खु०- हिदंस० - तिण्णिले० - भवसि ० - सम्मादि० खइय० - वेदय ० - उवसम० सासण०
सब त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैकियिककाययोगी वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, स्त्री वेदवाले, पुरुषवेदवाले, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रनज्ञानी अवधिज्ञानी, संयतासंयत, चतुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, पीतादि तीन लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवों के जानना ।
६६१३. मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि देव आहारककाययोगी, आहारकमिश्र काययोगी, अपगतवेदवाले, अकषायवाले, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंगत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिए ।
इस प्रकार उत्कृष्ट जीव अल्पबहुत्वानुगम समाप्त हुआ ।
१९१४. अब जीव विषयक जघन्य अल्पबहुत्वका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— प्रोघ निर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओधकी अपेक्षा सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीव सबसे थोड़े हैं । अजघन्यका भंग उत्कृष्टके समान है । इसी प्रकार सब नारकी, सब पंचेन्द्रिय तिर्यंच, सब मनुष्य, सब देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, पृथिवी आदि चार स्थावर काय, सब त्रस, पांचों मनोयोगी, पाच वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारक मिश्रकाययोगी, तीनों वेदवाले, अपगतवेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, अकषायी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्म सांपरायिक संयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, चतुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, पीतादि तीन लेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशम१. ता० प्रतौ 'सव्वविगलिंदिय चत्तारि' इति पाठः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org