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________________ પૂર્ अवासहिदे कसा पाहुडे [ द्विदिविहती ३ णवणोक० ज० द्वि० वि० संखेज्जगुणा । मिच्छ० जह० विसे० । श्रताणु० चटक ० ज० हि० वि० संखे० गुणा । एवं हिदिअप्पा बहुगागमो समत्तो । ० $ ९११. संपहि जीव अप्पा बहुगागमं वत्तइस्लामो । सो दुविहो - जहण्णश्रो उकस्सओ चेदि । तत्थ उकस्सए पयदं । दुविहो णिदेसो- ओघेण आदेसेण य । तत्थ घेणी पडणं सव्वत्थोवा उक्कस्सहिदिविहत्तिया जीवा । अणुक्क • हिदिविहत्तिया जीवा अनंतगुणा । सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा उक्क० हिदि० जीवा । अणुक्क० द्विदि० जीवा असंखे० गुणा । एवं तिरिक्ख० एइंदिय-वणफदि०णिगोद० - बादरसुहुमपज्जत्तापज्जत्त काय जोगि-ओरालिय० ओरा लिय मिस्स ० -कम्मइय०णवंस ० - चत्तारिक ० - मदिसुदअण्णाण - संजद ० - चक्खुदंस० - तिण्णिले० - भवसि०अभव०-मिच्छादि० असण्णी० आहारि० - अणाहारिति । णवरि अभव० सम्म० सम्मामि० णत्थि । 0 3 १९१२, देसेण णेरइएस सव्वत्थोवा अट्ठावीस उक्क० हिदि० जीवा । श्रक० द्विदि० जीवा असंखे० गुणा । एवं सव्व णेरइय- सव्वपंचिदियतिरिक्ख० - मरणुस मणुस अपज्ज० -देव-भवणादि जाव अवराइद त्ति सव्वविगलिंदिय- सव्व पंचिदिय- सव्वचत्तारिकाय - सव्वतस-पंचमण० - पंचवचि० - वेडव्विय० - वेड० मिस्स - इत्थि - पुरिस०-विहं और नौ नोकषायोंकी जवन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है। इससे मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है । इससे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है । इस प्रकार स्थिति अल्पबहुत्वानुगम समाप्त हुआ । $ ६१९. अब जीव विषयक अल्पबहुत्वानुगमको बतलाते हैं । वह दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उनमें से पहले उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ - निर्देश और आदेश निर्देश । उनमेंसे ओधकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार तिर्यंचों, तथा एकेन्द्रिय, वनस्पति और निगोद जीव तथा इन तीनों के बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त जीव तथा काययोगी, दारिकाययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदवाले, चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचतुदर्शनवाले, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञा, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना । किन्तु इतनी विशेषता है कि अभब्यों के सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियां नहीं हैं । $ ६१२. आदेशको अपेक्षा नारकियों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सब पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर अपराजित तक देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, सब पृथिवीकायिक आदि चार कायवाले, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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