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________________ गा०२२ हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिकालो २८१ ४६६. पंचिंदिय-पंचि०पज्ज-तस-तसपज्ज० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्क० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० एगावलिया । अणुकक० ज० एगस० उक्क० सगसगुकस्सहिदी । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क प्रकृतियोंकी उत्कष्ट स्थिति प्राप्त नहीं हो सकती, अतः अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण कहा। जो देव सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका एक समय तक बन्धकरके एक आवली कालके भीतर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ है उसके नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है और जो देव एक आवली या इससे अधिक काल तक सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके अनन्तर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ है उसके नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल एक श्रावलि प्रमाण पाया जाता है। तथा जिस देवने सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया और एक आवलीमें एक समय शेष रहने पर वह मर कर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ उसके भवके पहले समयमें नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थिति और दूसरे समयमें उत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है, अतः नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय कहा। तथा नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल मिथ्यात्व आदिके समान जानना चाहिये । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल भवके पहले समयमें होता है अतः एकेन्द्रियोंमें इन दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । तथा एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेके पहले समयमें जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर ली है उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय कहा। तथा उद्वेलनाके कालकी अपेक्षा एकेन्द्रियोंमें सम्यक्त्व और सभ्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कुष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा। बादर एकेन्द्रियोंके भी इसी प्रकार सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुकृष्ट स्थितिका काल जानना। किन्तु एक जीवका निरन्तर बादर एकेन्द्रिय पर्यायमें रहनेका उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है अतः इनके मिथ्यात्व सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके अपनी पर्यायमें रहनेका जघन्य काल अन्तमु हत और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्षे है अतः इस अपेक्षासे इनके अनुत्कृष्ट स्थितिके जघन्य और उत्कृष्ट कालमें एकेन्द्रियोंसे विशेषता आ जाती है। शेष कथन एकेन्द्रियों के समान जानना। बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान काल कहना चाहिये। किन्तु सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके अपनी पर्यायमें रहलेका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है अतः इनके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहना चाहिये । तथा सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकारके जीव गर्भित है अतः इनके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय कम खुद्दा भवग्रहण प्रमाण कहना चाहिये । शेष कथन सुगम है । इसी प्रकार विकलत्रयोंमें यथा सम्भव उनकी स्थितिका विचार करके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल घटित कर लेना चाहिये। ४६६. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और सपर्याप्त जीवोंमें मिथ्यात्व सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल मिथ्यात्व और सोलह कषायोंका अन्तमुहूर्त और नौ नोकषायोंका एक आवलीप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थिति का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल ओघके समान है । इसी प्रकार पुरुषवेदवाले, ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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