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________________ २८२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [विदिविहत्ती ज० एगस०, उक्क० ओघभंगो । एवं पुरिस०-चक्खु-सण्णि त्ति । - ५००. कायाणुवादेण पुढवि०-आउ०-चादरवणप्फदिपत्तेय० मिच्छत्त-सोलसक०णवणोक० उक्क० एइंदियभंगो । अणुक्क० जह० खुद्दाभवग्गहणं एगसमओ, उक्क० सगढिदी । सम्मत-सम्मामि० एइंदियभंगो। बादरपुढवि०-बादरआउ० एवं चेव । णवरि अणुक्कस्सुक्कस्सं सगहिदी। बादरपुढविपज्ज०-बादराउपज्ज० बादरेइंदियपज्जत्तभंगो। एवं बादरवणप्फदिपचेयसरीरपज्जत्ताणं । बादरपुढविअपज्ज० - बादरश्राउअपज्ज-तेउबादरतेउपज्जत्तापज्जत्त-वाउ०-बादरवाउपज्जत्तापज्जत्त - वादरवणप्फदिपत्तेयसरीरअपज०-णिगोद०-वादरणिगोदपज्जतापज्जत-सव्वसुहमाणं छब्बीसं पयडीणं उक्क० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क. खुद्दाभवग्गहणमंतोमुहुर्ग समऊणं, चक्षदर्शनवाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये। ६५०० कायमार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायिक, जलकायिक और बादर प्रत्येक बनस्पतिकायिक जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका भंग एकेन्द्रियोंके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी अपेक्षा खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा एक समय है तथा उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग एकेन्द्रियोंके समान है। बादर पृथिवीकायिक और बादर जलकायिक जीवोंके इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्त जीवों के उद्वेलनाकी अपेक्षा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जधन्य काल एक समय बन जाता है । भय जुगुप्सा, अरति शोक व नपुन्सक वेदकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अोधके समान अन्तर्मुहूर्त भी जानना चाहिये । शेष कथन सुगम है। ऊपर पुरुषवेदी आदि और जितनी मार्गणाएँ गिनाई है उनमें भी इसी प्रकार सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल घटित कर लेना चाहिये। तथा पृथिवीकाविक बादर पृथिवीकायिक और बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त आदिके अपनी-अपनी पर्यायमें निरन्तर रहने के कालका विचार करके अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल कहना चाहिये । शेष कथन सुगम है, क्योंकि इसका पहले अनेक बार खुलासा किया जा चुका है, अतः यहाँ व आगे भी उसका विचार करके यथासम्भव कथन करना चाहिये। बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त और बादर जलकायिक पर्याप्त जीवोंका भंग बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान जानना चाहिये । इसी प्रकार बादर बनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, वादर बनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, निगोदजीव, बादरनिगोद, बादरनिगोद पर्याप्त जीव, बादर निगोद अपर्याप्तजीव और सब सूक्ष्म जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और एक समय कम अन्तमुहूर्त है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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