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________________ - जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ णवरि कम्मइय०-अणाहार० उक्क० तेरह चो० भागा वा देसूणा। ६२६ बादरेइंदियअपज्ज०-मुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्त-बादरपुढविअपज्ज-मुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-बादरआउअपज्ज-मुहुमआउपज्जत्तापज्जत्त-बादरतेउअपज०-सुहुमतेउपज्जत्तापज्जत्त-बादरवाउअपञ्जा-सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेयअपज्ज०सुहुमवणप्फदि-णिगोद बादरसुहुमपज्जत्तापज्जत्त० उक० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । णवरि बादरपुढवि-तेउ-वणप्फदिअपज्ज० सव्वलोगो णत्थि । कुदो १ उक्कस्सहिदिसंतकम्मेण पडिणियदखेचे चेव एदेसिमुप्पत्तीदो। अणुक्क० सव्वलोगो। [ओरालियतिरिक्खोघं । ] ओरालियमिस्स० खेत्तभंगो । कायिकपर्याप्त, कार्मणकाययोगी और अनाहरक जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम तेरह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व आदि कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति उन्हींके पायी जाती है जो देव पर्यायसे च्युत होकर एकेन्द्रिय हुए हैं, अतः एकेन्द्रियोंमें 'मिथ्यात्व आदिकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श कुछ कम नौ बटे चौदह राजु बतलाया है जो उपपादपदकी प्रधानतासे प्राप्त होता है । तथा एकेन्द्रिय जीव सब लोकमें पाये जाते हैं, अतएव अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श सब लोक बतलाया है। आगे जो बादर एकेन्द्रिय आदि मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी यह व्यवस्था बन जाती है, अतः उनके कथनको एकेन्द्रियोंके समान कहा है। किन्तु कार्मणकायोग और अनाहारकोंमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि जो देव तद्योग्य उत्कृष्ट स्थितिके साथ एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं उनके भी कार्मणकाययोग और अनाहारक अवस्था सम्भव है तथा जो तियच और मनुष्य उत्कृष्ट स्थितिके साथ नारकियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके भी कामणकाययोग और अनाहारक अवस्था सम्भव है। अब यदि इन दोनोंके स्पर्शका संकलन किया जाता है तो वह कुछ कम तेरह बटे चौदह राजु प्राप्त होता है। यही कारण है कि कार्मणकाययोग और अनाहारक अवस्थामें उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श उक्तप्रमाण बतलाया है। ६६२६. बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रियपर्याप्त, सुक्ष्म एकेन्द्रि अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिकअपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिकपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिकअपर्याप्त, बादरजलकायिकअपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिकपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिकअपर्याप्त, बादर अग्निकायिकअपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिकपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिकअपर्याप्त, बादर वायुकायिकअपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिकपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिकअपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक व निगोद तथा इनके बादर, वादर पर्याप्त, बादार अपर्याप्त, सूक्ष्म, सूक्ष्म पर्याप्त और सूक्ष्म अपर्याप्त जीवोंमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। किन्तु इतनी विशेषता है कि बादर पृथिवीकायिकअपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिकअपर्याप्तकोंमें सब लोक स्पर्श नहीं है, क्योंकि उत्कृष्ट स्थिति सत्कर्म के साथ इन जीवोंकी प्रतिनियत क्षेत्रमें ही उत्पत्ति होती है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। औदारिककाययोगियोंका स्पर्श सामान्य तिर्यंचोंके समान है। औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें स्पर्श क्षेत्रके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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