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________________ www गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिविहत्तियपोसण इत्थि-पुरिसवेद०-सम्मत्त०-सम्मामि० उक्क० अह चोद्द० देसूणा । अणुक्क० अह-णव चो० देसूणा । एवं सोहम्मीसाणदेवाणं । भवण-वाण एवं चेव । णवरि अधुढअह-णव चोइस भागा देसूणा । सणक्कुमारादि जाव सहस्सारो त्ति सव्वपय० उक्क. अणुक्क० अह चोद्दस० देसूणा । आणद-पाणद-पारणच्चुद० सव्वपयणीणं उक्क लो. असंखे०भागो । अणुक्क० छ चोदस० देसूणा । उबरि खेत्तभंगो। ६६२८. एइंदिय० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्क० णव चोद० देसूणा । अणुक्क० सव्वलोगो । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्क० णव चो० । अणुक्क० ओघ । एवं बादरेइंदिय-बादरेइंदियपज्ज०-वणप्फदि-बादरवणप्फदि-तप्पज्जत्त-कम्मइ-अणाहारए त्ति । जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागों से कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने बसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पके देवोंके जानना चाहिये। भवनवासी और व्यन्तर देवोंके इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम साढ़े तीन भाग, कुछ कम आठ भाग और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श जानना चाहिये । सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। आनत. प्राणत. प्रारण और अच्यत कल्पके देवों में सब प्रक्रतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । इसके आगेके देवोंमें क्षेत्रके समान भंग है। विशेषार्थ—सामान्य देवोंका या पृथक् पृथक् देवोंका जो स्पर्श बतलाया है वही यहां प्राप्त होता है, अतः तदनुसार उसे यहां भी घटित कर लेना चाहिये। हां सामान्य देवों में स्त्रीवेद, पुरुषवेद, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंके स्पर्शमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिवाले देव एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात नहीं करते अतः इनका स्पर्श कुछ कम आठ बटे चौदह भाग ही प्राप्त होता है । तथा वेदकसम्यग्दृष्टियों के पहले समयमें ही सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। अब देवोंमें इसका विचार करते हैं तो ऐसे देव नीचे तीसरे नरक तक और ऊपर सोलहवें कल्प तक पाये जा सकते हैं, अतः सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श भी कुछकम आठ बटे चौदह भाग प्राप्त होता है । यही कारण है कि यहां सामान्य देवोंमें उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श कुछ कम आठ बटे चौदह भाग प्रमाण बतलाया है। . ६२८. एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्त्र, सोलह कषाय और नौ नौकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सब लोकका स्पर्श किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पश किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श ओघके समान है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रियपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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